November 14, 2008

सुबह-ए-आज़ादी

ये दाग दाग उजाला, ये शब-गजीदा सहर,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों कि आखरी मंजिल
कहीं तो होगा शब-ऐ-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जा के रुकेगा सफीना-ऐ-गम-ऐ-दिल
जवां लहू की पुर-असरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ऐ-हुस्न की बे-सब्र खाब-गाहों से
पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख-ऐ-सहर की लगन
बहुत करीं था हसीना-ऐ-नूर का का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना , दबी दबी थी थकन


सुना है हो भी चुका है फिराक-ऐ-जुल्मत-ऐ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ऐ-मंजिल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहल-ऐ-दर्द का दस्तूर
निशात-ऐ-वस्ल हलाल-ओ-अजाब-ऐ-हिज़र-ऐ-हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ऐ-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगार-ऐ-सबा , किधर को गई
अभी चिराग-ऐ-सर-ऐ-राह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गरानी-ऐ-शब में कमी नहीं आई
नजात-ऐ-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो की वो मंजिल अभी नहीं आई

फैज़ अहमद फैज़

November 12, 2008

मेरी तेरी निगाह में

मेरी तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं,
जो मेरे तेरे तन बदन में लाख दिल फिगार हैं
जो मेरी तेरी उँगलियों की बेहिसी से सब कलम नजार हैं
जो मेरे तेरे शहर की हर इक गली में
मेरे तेरे नक्श-ऐ-पा के बे-निशाँ मजार हैं
जो मेरी तेरी रात के सितारे ज़ख्म ज़ख्म हैं
जो मेरी तेरी सुबह के गुलाब चाक चाक हैं
ये ज़ख्म सारे बे-दवा ये चाक सारे बे-रफू
किसी पे राख चाँद की किसी पे ओस का लहू
ये हैं भी या नहीं बता
ये है कि महज जाल है
मेरे तुम्हारे अनकबूत-ऐ-वहम का बुना हुआ
जो है तो इसका क्या करें
नहीं है तो भी क्या करें
बता, बता, बता, बता

फैज़ अहमद फैज़

August 30, 2008

परछाईयों के पीछे पीछे - गुरमीत बराड़

सड़कों के
किनारों पे चलते चलते
युगों हुए

भीड़ से ख़ुद को बचाते
राहों से उतरे

अलग कहीं चलने की
पड़ गई आदत से
धीरे धीरे
ख़त्म हो गया है
हाशिये पे जीने का अहसास

सूरज की तरफ़ पीठ करके
अपने होने की खोज में
चला ही जा रहा हूँ
अपनी ही
परछाईयों के पीछे पीछे

गुरमीत बराड़
( पंजाबी कवि )

साँस लेना भी कैसी आदत है

साँस लेना भी कैसी आदत है
जिये जाना भी क्या रवायत है
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आंखों में
पाँव बेहिस हैं, चलते जाते हैं
इक सफर है जो बहता रहता है
कितने बरसों से , कितनी सदियों से
जिये जाते हैं, जिये जाते हैं

आदतें भी अजीब होती हैं

गुलज़ार

August 29, 2008

तजदीद -ऐ-वफ़ा का नहीं इमकान जानां

अब के तजदीद -ऐ-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानां,
याद क्या तुझ को दिलाएं तेरा पैमां जानां।

तजदीद=renewal; इम्काँ =possibility;
जानां=dear one/beloved; पैमां=promise



यूं ही मौसम की अदा देख के याद आया है,
किस कदर जल्द बदल जाते हैं इन्सां जानां।

ज़िन्दगी तेरी अत्ता थी सो तेरे नाम की है,
हमने जैसे भी बसर की तेरा एहसाँ जानां।

अत्ता=given by;बसर=to live

दिल ये कहता है कि शायद हो फ़सुर्दा तू भी,
दिल कि क्या बात करें दिल तो है नादाँ जानां।

फ़सुर्दा=sad/disappointed

अव्वल-अव्वल की मोहब्बत के नशे याद तो कर,
बिन पिए भी तेरा चेहरा था गुलिस्ताँ जानां।

अव्वल-अव्वल=the very first

आख़िर आख़िर तो ये आलम है के अब होश नहीं,
रग -ऐ-मीना सुलग उठी के राग-ऐ-जाँ जानां।

रग=veins; मीना=wine-holder; जाँ=life

मुद्दतों से ये आलम न तवक्को न उम्मीद,
दिल पुकारे ही चला जाता है जानां जानां।

मुद्दतों=awhile;तवक्को=hope

हम भी क्या सादा थे हमने भी समझ रखा था,
गम-ऐ-दौरां से जुदा है गम-ऐ-जानां जानां।

गम--दौरां=sorrows of the world

अब के कुछ ऐसी सजी महफ़िल-ऐ-यारां जानां,
सर-बा-जानू है कोई सर-बा-गरेबां जानां।

सर-बा-जानू=forehead touching the knees
सर-बा-गरेबां=lost in worries


हर कोई अपनी ही आवाज से कांप उठता है,
हर कोई अपने ही साए से हिरासां जानां।

हिरासां=scared of

जिस को देखो वही जंजीर- बा- पा लगता है,
शहर का शहर हुआ दाखिल-ऐ-जिन्दां जानां।

जंजीर- बा- पा=feet encased in chains;जिन्दां=prison

अब तेरा जिक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आए,
और से और हुआ दर्द का उन्वाँ जानां।

उन्वाँ=start of new chapter/title


हम कि रूठी हुई रुत को भी मना लेते थे,
हम ने देखा ही ना था मौसम-ऐ-हिज्राँ जानां।

मौसम-ऐ-हिज्राँ=season of separation

होश आए तो सभी ख़ाब थे रेजा-रेजा ,
जैसे उड़ते हुए औराक़-ऐ-परेशां जानां।

रेजा-रेजा=piece by piece;औराक़-ऐ-परेशां =strewn pages of a book

अहमद फराज

August 27, 2008

आंसू - गुरमीत बराङ

आंखों में पानी देख
कहीं तुम्हे
रोने का भ्रम ना हो जाए

तुम नहीं जानते
कि
रोते हुए , आंसू
बाहर नहीं
अन्दर गिरते हैं

गुरमीत बराङ
( पंजाबी कवि)

August 26, 2008

तू मुझे इतने प्यार से मत देख

तू मुझे इतने प्यार से मत देख
तेरी पलको के नर्म साए में
धूप भी चान्दनी सी लगती है
और मुझे कितनी दूर जाना है
रेत है गर्म, पांव के छाले
यू दमकते हैं जैसे अंगारे
प्यार कि ये नज़र रहे, न रहे
कौन दश्त-ऐ-वफ़ा में जाता है
तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे
तू मुझे इतने प्यार से मत देख

अली सरदार जाफरी

August 18, 2008

AUF WIEDERSEHEN (Until we meet again!)

AUF WIEDERSEHEN

(Until we meet again!)

In memory of J.T.F.

Of the familiar words, that men repeat
At parting in the street.
Ah yes, till then! but when death intervening
Rends us asunder, with what ceaseless pain
We wait for the Again!

The friends who leave us do not feel the sorrow
Of parting, as we feel it, who must stay
Lamenting day by day,
And knowing, when we wake upon the morrow,
We shall not find in its accustomed place
The one beloved face.

It were a double grief, if the departed,
Being released from earth, should still retain
A sense of earthly pain;
It were a double grief, if the true-hearted,
Who loved us here, should on the farther shore
Remember us no more.

Believing, in the midst of our afflictions,
That death is a beginning, not an end,
We cry to them, and send
Farewells, that better might be called predictions,
Being fore-shadowings of the future, thrown
Into the vast Unknown.

Faith overleaps the confines of our reason,
And if by faith, as in old times was said,
Women received their dead
Raised up to life, then only for a season
Our partings are, nor shall we wait in vain
Until we meet again!


Henry Wadsworth Longfellow

( German Poet)


Translated from german.


August 7, 2008

भूलने में बहुत याद आते हो तुम

मेरे जान-ओ-दिल औ इबादत हो तुम,
खुदा होके जुदा हुए जाते हो तुम।

भूल जाओगे तुम ऐसा सोचा ना था,
भूलने में बहुत याद आते हो तुम।

मेरी फरियाद भी, ज़रा तुम सुनो,
मुंह मोङे क्यूँ चले जाते हो तुम।

प्यार मेरा हकीकी है, सौदा नहीं,
यूंही बेगैरत कह के सताते हो तुम।

अपना जान कर मांग बैठा था मैं,
अजनबी की तरह पेश आते हो तुम।

मेरी आवाज ही दूंढ़ लेगी तुम्हे,
चले जाओ, कहाँ तक जाते हो तुम।

तन्हा पहले भी था, हूँ फिर से तन्हा बहुत,
मेरी तन्हाई में आते जाते हो तुम।


डा राजीव
डा रविंद्र सिंह मान

August 6, 2008

दर्द ही दर्द है बाकी

दर्द से मेरा अब रिश्ता क्या है,
दर्द ही दर्द बाकी
है अब दवा क्या है।

जेहन में गूंजते हैं हजारों नगमें,
जिसपे गाऊं वो साज़ बचा क्या है।

कहा बहुत कुछ हाल से अपने, मगर,
तुमने समझा ही नहीं माजरा क्या है।

इल्तजा, मिन्नतें, सजदा जिसके दर पे किया,
वो ईसा फकत ये बोला , तू चाहता क्या है।


मोहब्बत से यकीन मेरा उठ सा गया,
मोहब्बत कर के मगर कोई पाता क्या है।



डा राजीव


August 5, 2008

वक्त आता रहा , वक्त जाता रहा

वक्त के साथ कदम मिलाता रहा

ख़ुद अपनी ही हस्ती मिटाता रहा


रिश्ते चलते रहे चाल अपनी

हर बाज़ी पे मैं मात खाता रहा


अब गिरा हूँ जो उठ ना सकूंगा कभी

जिस्म कैसे अभी तक उठाता रहा


मेरा रहबर मेरा खुदा तू ही था

कैसे मुझपे तू इल्जाम उठाता रहा


अपनी औकात से बढ़ कर चाहा तुझे

इश्क मुझको मेरी औकात बताता रहा


मैं रहा मुन्तजिर, राह खाली रहे

वक्त आता रहा ,वक्त जाता रहा


मैं चुप था, मेरी खता थी कोई

तू ही इल्जाम सारे लगाता रहा


लाख चाह के मुझे भूलता ही नही

जाने कैसे तू हर पल भुलाता रहा


हर साँस पूछती थी तेरी खबर

हर धड़का तेरी याद दिलाता रहा


जान दे दी , अमानत उसी की ही थी

जिस्म बाकी रहा , साँस आता रहा


जिस कागज़ पे लिखा था नाम तेरा

कुरान समझा और माथे लगाता रहा


क्या पाया है मैंने खो के तुझे,
बाद तेरे ये हिसाब लगाता रहा।


डॉ राजीव

डा रविन्द्र सिंह मान

August 2, 2008

काश

एक मुस्लिम नाम वाले लड़के ने
मुझ पे बम्ब फेंका,
एक मुसलमान ने मुझे
अस्पताल पहुंचाया,
मैं पुरी कौम को आंतकवादी कहने से चूक गया।


डा रविंद्र सिंह मान

August 1, 2008

हालात की बात करें

आओ कोई ग़ज़ल लिखें, कुछ दिल की बात करें,
कुछ कहें जमाने की, कुछ इश्क की बात करें।

लम्हा--फुरकत का कुछ हिसाब देखें,
बीते दिनों के कुछ जज्बात की बात करें।

हालात जुदा हैं बहुत ,जज्बात की बातों से,
जज्ब करें सच को, हालात की बात करें।

खाबों को दरकिनार करें, सपनों से परे देखें,
सचाई के दलदल में ,औकात की बात करें।

जज्बात के वो किस्से, अंजाम नहीं पहुंचे,
किस उम्मीद से फ़िर, आगाज की बात करें।

ताबूत दफन करें ,अपनी नाकामियों के,
फ़िर से जलायें दिए, गुलाल की बात करें।

जब भी करें ,करें राज दिलों पे हम ,
क्यूँ सोचें दुनिया फतह की ,क्यूँ ताज की बात करें।

आओ मिलें गले और भुला दे रंजिशें सभी ,
ना हिंदू की करें बात, ना मुसलमां की बात करें।

दिल की ये मुश्किल है, ये कल को नहीं भुलाता,
अक्ल ये कहती है, कि आज की बात करें

अरमानों का
दरिया था , अश्कों में बहता था,
उम्मीद के सहरा में उसी बरसात की बात करें।

डा राजीव
डा रविन्द्र
सिंह मान

July 30, 2008

खो गया है आवाज लगाने वाला

अब खुशी है ना कोई गम सताने वाला,
मुझको मिला हर ज़ख्म जमाने वाला।

अपना हाल सुनाता था जो सबसे पहले,
बेहाल हो गया है, ख़ुद हाल सुनाने वाला।

खलिश उठती है तो , गुमान होता है,
दर्द
छुपा है अन्दर कोई सताने वाला।

मेरी किस्मत पे ना तरस खा दोस्त,
सबको मिलता नहीं साथ निभाने वाला।

अपने नाम का कोई और
देख
अपने जैसा, अपनी हस्ती मिटाने वाला।

साथी मिलता नहीं, और मिल जाए कभी,
मौका मिलता नहीं, हाल सुनाने वाला।

ख्याल उलझे हुए हैं, और मैं खामोश,
है कहीं कोई तूफ़ान आने वाला।

मेरे अन्दर भटकता है दरिया,
नहीं आता मुकाम आने वाला।

मैं भी गुम हूँ, मेरे अल्फाज भी गुम ,
खो गया ख़ुद आवाज लगाने वाला

तलाशता हूँ समेटने को ख़ुद को,
नहीं मिलता पता, ठिकाने वाला

डा राजीव
डा रविन्द्र सिंह मान

May 27, 2008

हम भूल गए हों ऐसा भी नहीं

सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं

सौदा = पागलपन
तर्क-ए-मोहब्बत = मोहब्बत का टूटना

यूं तो हंगामें उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क
मगर ए दोस्त ऐसों का कुछ ठिकाना भी नहीं

मुद्दतें गुज़रीं तेरी याद भी आई ना हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं

ये भी सच है के मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है के तेरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं

दिल की गिनती ना यगनों में ना बेगानों में
लेकिन इस जल्वागाह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं

यगना = जानकार
जल्वागाह = यहाँ कोई कार्यक्रम हो रहा हो

बदगुमां हो के मिल ए दोस्त जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुए मिलना कोई मिलना भी नहीं

बदगुमां = बिना शक

शिकवा-ए-ज़ौर करे क्या कोई उस शोख से जो
साफ कायल भी नहीं साफ मुकरता भी नहीं

शिकवा-ए-जौर = जुल्म कि शिकायत

मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ए दोस्त
आह मुझसे तो मेरी रंजिश-ए-बेजाँ भी नहीं

बात ये है की सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मकाम
कुञ्ज-ए-जिन्दां भी नहीं वुसात-ए-सेहरा भी नहीं

मकाम = मंजील
कुञ्ज-ए-जिन्दां = जेल का कोना
वुसात-ए-सेहरा = रेगिस्तान का विस्तार

मुंह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते , के 'फिराक'
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं

फ़िराक गोरखपुरी

May 26, 2008

भुलाता लाख हूँ

भुलाता लाख हूँ लेकिन बराबर याद आते हैं
इलाही तर्क-ए-उल्फत पर वो क्योंकर याद आते हैं

ना छेड़ ऐ हमनशीं कैफिअत-ए-सहबा के अफ़साने
शराब-ए-बेखुदी के मुझ को सागर याद आते हैं

रहा करते हैं कैद-ए-होश में ऐ वाये नाकामी
वो दश्त-ए-ख़ुद फरामोशी के चक्कर याद आते हैं

नहीं आती तो याद उनकी महीनों भर नहीं आती
मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं

हकीकत खुल गयी 'हसरत' तेरे तर्क-ए-मोहब्बत की
तुझे तो अब वो पहले से भी बढ़कर याद आते हैं

हसरत मोहानी

May 25, 2008

दिल से जिगर तक

एक जू-ए-दर्द दिल से जिगर तक रवां है आज
पिघला हुआ रगों में इक आतिश-फिशां है आज

जू-ए-दर्द = दर्द की नदी
आतिश-फिशां = ज्वालामुखी

लब सी दिए हैं ता न शिकायत करे कोई
लेकिन हर एक ज़ख्म के मुँह में जबां है आज

तारीकियों ने घेर लिया है हयात को
लेकिन किसी का रू-ए-हसीं दरमि्याँ है आज

तारीकियों = अंधेरों
रू-ए-हसीं = सुंदर चेहरा

जीने का वक्त है यही मरने का वक्त है
दिल अपनी जिंदगी से बहुत शादमां है आज

शादमां= खुश

हो जाता हूँ शहीद हर अहल-ए-वफ़ा के साथ
हर दास्तान-ए-शौक़ मेरी दास्ताँ है आज

अहल-ए-वफ़ा = वफ़ा करने वाला
दास्तान-ए-शौक़ = प्रेम कि कहानी

आए हैं किस निशा़त से हम क़त्लगाह में
ज़ख्मों से दिल है चूर, नज़र गुल-फिशां है आज

निशा़त= खुशी
क़त्लगाह= वध स्थल
गुल-फिशां = फूल फैलाने वाली

जिन्दानियों ने तोड़ दिया ज़ुल्म का गुरूर
वो दबदबा, वो रौब-ए-हुकूमत कहाँ है आज


जिन्दानियों= कैदीयों


अली सरदार जाफरी








May 24, 2008

आँख मेरी तलवों से


आँख मेरी तलवों से मल जाए तो अच्छा

है हसरत-ए-पा-बोस निकल जाए तो अच्छा


जो चश्म के बे-नाम हों, वो हो कोर तो बेहतर

जो दिल के हो बे-दाग़ , वो जल जाए तो अच्छा


फुर्क़त में तेरी तार-ए-नफस सीने में मेरे

काँटा सा खटकता है, निकल जाए तो अच्छा


वो सुबह को आए तो करूं बातें मैं दो पहर

और चाहूँ के दिन थोडा सा ढ़ल जाए तो अच्छा


ढ़ल जाए जो दिन भी तो इसी तरह करूं शाम

और चाहूँ के गर आज से कल जाए तो अच्छा

जब कल हो तो फ़िर वही करूं कल की तरह से

गर आज का दिन भी यूंही टल जाए तो अच्छा


अल-किस्सा नहीं चाहता मैं, जाए वो याँ से

दिल उसका यहीं गरचे बहल जाए तो अच्छा


इब्राहीम ज़ौक

May 23, 2008

दिन कुछ ऐसे

दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई

आईना देखकर तसल्ली हुई
हमको इस घर में जानता है कोई

पक गया है शज़र पे फल शायद
फ़िर से पत्थर उछालता है कोई

फ़िर नज़र में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुगालता है कोई

देर से गूंजते हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई

गुलज़ार

May 22, 2008

काम ना आएगा कोई दिल के सिवा

काम अब कोई ना आएगा बस इक दिल के सिवा
रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-कातिल के सिवा

बाईस-ए-रश्क है तन्हारवी-ए-रहरौ-ए-शौक़
हमसफ़र कोई नहीं दूरी-ए-मंजिल के सिवा

हम ने दुनिया कि हर इक शै से उठाया दिल को
लेकिन इक शोख के हंगामा-ए-महफ़िल के सिवा

तेग मुंसिफ हो जहाँ, दार-ओ-रसन हों शाहिद
बेगुनाह कौन है उस शहर में कातिल के सिवा

जाने किस रंग से आई है गुलशन में बहार
कोई नगमा ही नहीं शोर -ए-सिलासिल के सिवा

अली सरदार जाफरी

May 21, 2008

आदतन

आदतन तुम ने कर दिए वादे
आदतन हम ने ऐतबार किया

तेरी राहों में बारहा रूककर
हमने अपना ही इंतज़ार किया

अब ना मांगेंगे ज़िंदगी या रब
ये गुनाह हम ने एक बार किया

गुलज़ार

May 20, 2008

ना जाना आज तक

ना जाना आज तक क्या शै खुशी है
हमारी जिंदगी भी जिंदगी है

तेरे गम से शिकायत सी रही है
मुझे सचमुच बड़ी शर्मिंदगी है

मोहब्बत में कभी सोचा है यूं भी
कि तुझसे दोस्ती या दुश्मनी है

कोई दम का हूँ मेहमान मुंह ना फेरो
अभी आंखों में कुछ कुछ रोशनी है

ज़माना ज़ुल्म मुझ पर कर रहा है
तुम ऐसा कर सको तो बात भी है

झलक मासूमियों में शोखियों की
बहुत रंगीन तेरी सादगी है

इसे सुन लो सबब इसका ना पुछो
मुझे तुमसे मोहब्बत हो गई है

सुना है इक नगर है आँसुओं का
उसी का दूसरा नाम आँख भी है

वही तेरी मोहब्बत की कहानी
जो कुछ भूली हुई कुछ याद भी है

तुम्हारा ज़िक्र आया इत्तेफा़कन
ना बिगङो बात पर बात आ गयी है

फ़िराक गोरखपुरी

May 19, 2008

कोई नई जमीं हो

कोई नई जमीं हो नया आसमां भी हो
ए दिल अब उसके पास चलें वो जहाँ भी हो

अफसुर्दगी-ए-दिल में सोज-ए-निहां भी हो
यानी बुझे दिलों से कुछ उठता धुआँ भी हो

इस दर्जा इख्तिलात और इतनी मुगायरत
तू मेरे और अपने कभी दरम्याँ भी हो

हम अपने गमगुसार-ए-मुहब्बत ना हो सके
तुम तो हमारे हाल पे कुछ मेहरबाँ भी हो

बज्म-ए-तस्सवुरात में ए दोस्त याद आ
इस महफ़िल-ए-निशात में गम का सामाँ भी हो

महबूब वो की सर से कदम तक खुलुस हो
आशिक वही कि हुस्न से कुछ बदगुमां भी हो

फिराक गोरखपुरी

मता-ए-गैर

मेरे खा़बों के झरोखों को सजाने वाली
तेरे खा़बों में कहीं मेरा गुजर है के नहीं
पूछकर अपनी निगाहों से बता दे मुझको
मेरी रातों के मुकद्दर में सहर है के नहीं

चार दिन की ये रफाकत जो रफाकत भी नहीं
उम्र भर के लिए आजार हुई जाती है
ज़िंदगी यूं तो हमेशा से परेशान सी थी
अब तो हर साँस गिरां बार हुई जाती है

मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में
तू किसी खाब के पैकर की तरह आई है
कभी अपनी सी , कभी गैर नज़र आती है
कभी इख्लास की मूरत कभी हरजाई है

प्यार पर बस तो नहीं है मेरा, लेकिन फ़िर भी
तू बता दे के तुझे प्यार करूं या ना करूं
तुने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें
उन तमन्नाओं का इजहार करूं या न करूं

तू किसी और के दामन की कली है लेकिन
मेरी रातें तेरी खुशबू से बसी रहती हैं
तू कहीं भी हो तिरे फूल से आरिज़ कि कसम
तेरी पलकें मिरी आंखों पे झुकी रहती हैं

तेरे हाथों की हरारत, तेरे साँसों की महक
तैरती रहती है एहसास की पहनाई में
ढूँढती रहती हैं तखईल की बाहें तुझको
सर्द रातों की सुलगती हुई तन्हाई में

तेरा अल्ताफ-ओ-करम एक हकीकत है मगर
ये हकीकत भी हकीकत में फ़साना ही न हो
तेरी मानूस निगाहों का ये मोह्तात पयाम
दिल के खूँ करने का एक और बहाना ही ना हो

कौन जाने मेरे इमरोज़ का फरदा क्या है
कुर्बतें बढ़ कर पशेमाँ भी हो जाती हैं
दिल के दामन से लिपटी हुई रंगीन नज़रें
देखते-देखते, अनजान भी हो जाती हैं

मिरी दर्मान्दा जवानी की तमन्नाओं के
मुज्म्हिल खाब की ताबीर बता दे मुझको
तेरे दामन में गुलसिताँ भी हैं, वीराने भी
मेरा हासिल, मिरी तकदीर बता दे मुझको

साहिर लुध्यानवी



May 18, 2008

इंतिज़ार का मौसिम

रविश-रविश है वही इंतिज़ार का मौसिम
नहीं है कोई भी मौसिम बहार का मौसिम

गिरां है दिल पे गम-ए-रोजगार का मौसिम
है आ़जमाइश-ए -हुस्न-ऐ-निगार का मौसिम

खुशा नजारा-ए-रुखसार-ए-यार कि साअत
खुशा करार-ए-दिल-ए-बेकरार का मौसिम

हदीस-ए-बादा-ओ-साकी नहीं, तो किस मसरफ
खिराम-ए-अब्र-ए-सर-ए-कोहसार का मौसिम?

नसीब सोहबत-ए-यारां नहीं, तो क्या कीजे
ये रक्स-ए-साया-ए-सर्व-ओ-चिनार का मौसिम?

ये दिल के दाग तो दुखते थे यूँ भी, पर कम कम
कुछ अब के और है हिजरां-ए-यार का मौसिम

यही जूनून का, यही तौक-ओ-दार का मौसिम
यही है जब्र, यही इख्तियार का मौसिम

कफ़स है बस में तुम्हारे, तुम्हारे बस में नहीं
चमन में आतिश-ए-गुल के निखार का मौसिम

सबा की मस्त खिरामी तह-ए-कमंद नहीं
असीर-ए-दाम नहीं है बहार का मौसिम

बला से, हम ने न देखा तो और देखेंगे
फुरोग़-ए-गुलशन-ओ-सौत-ए-हज़ार का मौसिम

फैज़ अहमद फैज़

May 17, 2008

गालिब

दरखूर-ऐ-कहर - ओ- गजब जब कोई हमसा ना हुआ
फिर ग़लत क्या है की हमसा कोई पैदा ना हुआ

बंदगी में भी वो आज़ादा-ओ-ख़ुद-बीन हैं कि हम
उल्टे फिर आए दर-ऐ-काबा अगर वा ना हुआ

सब को मक़बूल है दावा तेरी यकताई का
रू-ब-रू कोई बुत-ऐ-आइना-सीमा ना हुआ

कम नहीं नाज़िश-ऐ-हमनामी-ऐ-चश्म-ऐ-खूबाँ
तेरा बीमार बुरा क्या है गर अच्छा ना हुआ

सीने का दाग है वो नाला कि लब तक ना गया
ख़ाक का रिज़्क़ है वो क़तरा कि दरिया ना हुआ

नाम का मेरे है जो दुःख कि किसी को ना मिला
काम में मेरे है जो फितना कि बर-पा ना हुआ

हर बुन-ऐ-मू से दम-ऐ-ज़िक्र ना टपके खून-नाब
हमज़ा का किस्सा हुआ, इश्क़ का चर्चा ना हुआ

कतरे में दिजला दिखाई ना दे और जुज़्व में कुल
खेल लड़कों का हुआ, दीदा-ऐ-बीना ना हुआ

थी ख़बर गर्म कि गालिब के उड़ेंगे पुरज़े
देखने हम भी गए थे पर तमाशा ना हुआ

गालिब

May 16, 2008

ताज महल

ताज तेरे लिए इक मजहर-ऐ-उल्फत ही सही
तुझ को इस वादी-ऐ-रंगीं से अकीदत ही सही

मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे

बज्म-ऐ-शाही में ग़रीबों का गुजर क्या मानी
सब्त जिस राह पे हों सतवत-ऐ-शाही के निशाँ
उस पे उल्फत भरी रूहों का सफर क्या मानी

मेरी महबूब पस-ऐ-परदा-ऐ-तश_हीर -ऐ-वफ़ा
तू ने सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मकाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक मकानों को तो देखा होता

अनगिनत लोगों ने दुनिया में मोहब्बत कि है
कौन कहता है के सादिक ना थे जज्बे उनके
लेकिन उनके लिए तश_हीर का सामान नहीं
क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफलिस थे

ये इमारात-ओ-मकाबिर ये फसीलें , ये हिसार
मुतला-कुलहुकम शहंशाहों की अजमत के सुतुं
दामन-ऐ-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिस में शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का खून

मेरी महबूब उन्हें भी तो मोहब्बत होगी
जिनकी सानाई ने बक्शी है इन्हें शक्ल-ऐ-जमील
उन के प्यारों के मकाबिर रहे बेनाम -ओ-नमुद
आज तक उन पे जलाई ना किसी ने कंदील

ये चमनजार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक्क़श दर-ओ-दिवार, ये मेहराब ये ताक
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों कि मोहब्बत का उड़ाया है मजाक

मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे

साहिर लुध्यानवी

May 15, 2008

कभी कभी

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है

के ज़िंदगी तिरी जुल्फों के नर्म सायों में
गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी जीस्त का मुकद्दर है
तेरी नज़र कि शुआयों में खो भी सकती थी

अजब ना था कि मैं बेगाना-ऐ-आलम रह कर
तिरी जमाल कि रानाइयों में खो रहता
तिरा गुदाज़ बदन तेरी नीमबाज़ आंखें
इन्हीं हसीन फसानों में महव हो रहता

पुकारती मुझे जब तल्खियां ज़माने की
तिरे लबों से हलावत के घूँट पी लेता
हयात चीखती फिरती बरहना सर और मैं
घनेरी ज़ुल्फ के साए में छुप के जी लेता

मगर ये हो ना सका और अब ये आलम है
के तू नहीं, तिरा गम ,तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे
इसे किसी के सहारे कि आरजू भी नहीं

ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रह गुजारों से
मुहीब साए मेरी सम्त बढ़ते आते हैं
हयात-ओ-मौत के पुरहौल खारज़ारों से

ना कोई जादा, ना मंजिल, ना रोशनी का सुराग
भटक रही है खलायों में जिंदगी मेरी
इन्हीं खलायों में रह जाऊंगा कभी खोकर
मैं जानता हूँ मेरी हमनफस मगर यूंही

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है


साहिर लुध्यानवी

May 14, 2008

साहिर लुध्यानवी

हवस नसीब नज़र को कहीं करार नहीं
मैं मुन्तजिर हूं, मगर तेरा इंतज़ार नहीं

हमीं से रंग-ऐ-गुलिस्तां, हमीं से रंग-ऐ-बहार
हमीं को नज्म-ऐ-गुलिस्तां पे इख्तियार नहीं

अभी न छेड़ मुह्ब्बत के गीत ऐ मुतरिब
अभी हयात का माहौल खुशगवार नहीं

तुम्हारे अहद-ऐ-वफ़ा को मैं अहद क्या समझूं
मुजे ख़ुद अपनी मुहब्बत का एतबार नहीं

न जाने कितने गिले इसमें मुज्तरिब हैं नदीम
वो एक दिल जो किसी का गिला-गुजार नहीं

गुरेज़ का नहीं कायल हयात से, लेकिन
जो सच कहूं तो मुझे मौत नागवार नहीं

ये किस मकाम पे पहुंचा दिया ज़माने ने
के अब हयात पे तेरा भी इख्तियार नहीं

साहिर लुध्यानवी

May 13, 2008

हिम्मत-ऐ- इल्तजा नहीं बाकी

हिम्मत-ऐ- इल्तजा नहीं बाकी
ज़ब्त का हौसला नहीं बाकी

इक तेरी दीद छिन गई मुझसे
वरना दुनिया में क्या नहीं बाकी

अपनी मशक-ऐ-सितम से हाथ ना खींच
मैं नहीं या वफ़ा नहीं बाकी

तेरी चश्म-ऐ-आलमनवाज़ कि खैर
दिल में कोई गिला नहीं बाकी

हो चुका खत्म अहद-ऐ-हिज़र-ओ-विसाल
ज़िंदगी में मज़ा नहीं बाकी

फैज़ अहमद फैज़

May 12, 2008

खुदा वो वक्त ना लाये

खुदा वो वक्त ना लाये की सोगवार हो तू
सुकून कि नींद तुझे भी हराम हो जाए
तेरी मसर्रत-ऐ-पैहम तमाम हो जाए
तेरी हयात तुझे तल्ख़ जाम हो जाए

ग़मों से आइना -ऐ-दिल गुदाज हो तेरा
हुजूम-ऐ-यास से बेताब होके रह जाए
वाफूर-ऐ-दर्द से सीमाब होके रह जाए
तेरा शबाब फ़क़त खाब होके रह जाए

गुरूर-ऐ-हुसन सरापा नियाज़ हो तेरा
तबील रातों में तू भी करार को तरसे
तेरी निगाह किसी गम गुसार को तरसे
खिजां रसीदा तमन्ना बहार को तरसे

कोई जबीं ना तेरे संग
-ऐ-आस्तां पे झुके
कि जींस-ऐ- ईज-ओ-अकीदत से तुझ को शाद करे
फरेब-ऐ-वादा-ऐ-फर्दा पे एतमाद करे
खुदा वो वक्त ना लाये कि तुझको याद आए

वो दिल कि तेरे लिए बेकरार अब भी है
वो आँख जिसको तेरा इंतज़ार अब भी है


फैज़ अहमद फैज़

May 11, 2008

मोहब्बत में हार के

दोनों जहाँ तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शब-ऐ-गम गुजार के

वीरान है मैकदा खुम-ओ-सागर उदास है
तुम क्या गए के रूठ गए दिन बहार के

इक फुरसत-ऐ-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हम ने हौसले परवर-दिगार के

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिल फरेब हैं गम रोज़गार के

भूले से मुस्करा तो दिए थे वो आज 'फैज़'
मत पूछ वल-वले दिल-ऐ-ना-कर्दाकार के

फैज अहमद फैज़

May 10, 2008

ग़ालिब

कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाये है मुझ से,

जफायें कर के अपनी याद शर्मा जाये है मुझ से।

खुदाया, जज़्बा-ऐ-दिल की मगर तासीर उल्टी है,

के जितना खींचता हूँ और खिंचता जाये है मुझ से।

वो बद-खू और मेरी दास्तान-ऐ-इश्क तूलानी,

इबारत मुख्तसर, क़ासिद भी घबरा जाये है मुझ से ।

उधर वो बद-गुमानी है, इधर ये नातुवानी है,

ना पूछा जाये है उस से, ना बोला जाये है मुझ से ।

संभलने दे मुझे ऐ ना-उम्मीदी क्या क़यामत है,

कि दामन-ऐ-ख़याल-ऐ-यार छूटा जाये है मुझ से ।

तकल्लुफ़ बर-तरफ़ नज्ज़ारगी मैं भी सही लेकिन,

वो देखा जाये कब ये ज़ुल्म देखा जाये है मुझ से ।

हुए हैं पाँव ही पहले नबर्द-ऐ-इश्क में ज़ख्मी,

ना भागा जाये है मुझ से ना ठहरा जाये है मुझ से ।

क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफर गालिब,

वो क़ाफिर जो खुदा को भी ना सौंपा जाये है मुझ से ।

ग़ालिब

चाक-ए-गिरेबां की तलाश


दिल के ऐवान में लिए गुल्शुदा शम्मों की कतार
नूर-ए-खुर्शीद से सहमे हुए, उकताए हुए

हुस्न-ए-महबूब के सय्याल तसव्वुर की तरह
अपनी तारीकी को भैंचे हुए, लिपटाए हुए


गायत-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ, सूरत-ए-आगाज़-ओ-म'आल
वही बेसूद तजस्सुस, वही बेकार सवाल


मुज़्महिल सा'अत-ए-इमरोज़ की बे-रंगी से
याद-ए-माज़ी से गमीन, दहशत-ए-फरशा से निदाल


तिशना-अफ्कार जो तस्कीन नहीं पाते हैं
सोखता अश्क जो आंखों में नहीं आते हैं
एक कड़ा दर्द जो गीत में ढलता ही नहीं
दिल के तारीक शिगाफों से निकलता ही नहीं


और एक उलझी हुई मौहूम सी दरमां की तलाश
दश्त-ओ-ज़िन्दां की हवस , चाक-ए-गिरेबां की तलाश

शकील बदायूनी

मेरे हमनफस, मेरे हमनवा, मुझे दोस्त बनके दगा ना दे,
मैं हूँ दर्द-ए-इश्क से जां-वलब, मुझे ज़िंदगी की दुआ ना दे।

मेरे दाग-ए-दिल से है रौशनी, उसी रौशनी से है ज़िंदगी,
मुझे डर है अये मेरे चारागर, ये चराग तू ही बुझा ना दे।

मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर, तेरा क्या भरोसा है चारागर,
ये तेरी नवाज़िश-ए-मुख्तसर, मेरा दर्द और बढ़ा ना दे।

मेरा अज्म इतना बलंद है के पराए शोलों का डर नहीं,
मुझे खौफ आतिश-ए-गुल से है, ये कहीं चमन को जला ना दे।

वो उठे हैं लेके होम-ओ-सुबू, अरे ओ 'शकील' कहां है तू,
तेरा जाम लेने को बज़्म मे कोई और हाथ बढ़ा ना दे।

शकील बदायूनी

May 2, 2008

गालिब

जौर से बाज़ आये पर बाज़ आयें क्या
कहते हैं हम तुझ को मुह दिखलायें क्या।

रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमां
हो रहेगा कुछ ना कुछ घबरायें क्या।

लाग हो तो उस को हम समझें लगाव
जब न हो कुछ भी तो धोखा खाएं क्या।

हो लिए क्यूं नामा-बर के साथ साथ,
या रब अपने ख़त को हम पहुँचायें क्या।

मौज-ऐ-खून सर से गुज़र ही क्यूं ना जाए
आस्तान-ऐ-यार से उठ जाएं क्या।

उम्र भर देखा किए मरने की राह
मर गए पर देखिये दिखलायें क्या।

पूछते हैं वो की गालिब कौन है
कोई बतलाये की हम बतलायें क्या।

ग़ालिब

तबीयत इन दिनों

तबीयत इन दिनों बेगाना-ऐ-गम होती जाती है ,
मेरे हिस्से कि गोया हर खुशी कम होती जाती है ।

वही है शाहिद-ओ-साकी, मगर दिल बुझता जाता है ,
वही है शम्मा लेकिन रोशनी कम होती जाती है।

क़यामत क्या ये ऐ हुस्न-ऐ-दो आलम होती जाती है,
के महफ़िल तो वही है, दिल-कशी कम होती जाती है ।

वही मैखाना-ओ-सहबा, वही सागर वही शीशा ,
मगर आवाज़-ऐ-नोशानोश मद्धम होती जाती है ।

वही है जिंदगी लेकिन "जिगर" ये हाल है अपना ,
के जैसे जिंदगी से जिंदगी कम होती जाती है ।

जि़गर मुरादाबादी

April 23, 2008

अपने खाबों में

अपने ख्वाबों में तुझे जिस ने भी देखा होगा ,
आँख खुलते ही तुझे ढूंढने निकला होगा।

जिंदगी सिर्फ़ तेरे नाम से मनसूब रहे,
जाने कितने ही दिमागों ने ये सोचा होगा।

दोस्त हम उस को ही पैगाम ऐ करम समझेंगे,
तेरी फुरकत का जो जलता हुआ लम्हा होगा।

दामन -ऐ - जीस्त में कुछ भी नही है बाक़ी,
मौत आई तो यकीनन उसको धोका होगा।

रौशनी जी से उतर आई लहू में मेरे,
ए मसीहा वो मेरा ज़ख्म-ऐ- तमन्ना होगा।

दाना

April 22, 2008

मंजिल-ऐ-इश्क में

ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया,
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया।


यूं तो हर शाम उम्मीदों में गुज़र जाती थी,
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया।


कभी तक़दीर का मातम, कभी दुनिया का गिला,
मंजिल-ऐ-इश्क में हर गाम पे रोना आया।


जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का 'शकील',
मुझ को अपने दिल-ऐ-नाकाम पे रोना आया।

शकील बदायूनी

दिल तोड़ दिया

कुछ तो दुनिया की इनायत ने दिल तोड़ दिया ,
और कुछ तल्खी-ऐ-हालात ने दिल तोड़ दिया।

हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब,
आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया।

दिल तो रोता रहे, और आँख से आंसू न बहे
इश्क कि ऎसी रवायत ने दिल तोड़ दिया।

वो मेरे हैं मुझे मिल जायेंगे आ जायेंगे,
ऐसे बेकार के खयालात ने दिल तोड़ दिया।

आप को प्यार है मुझ से के नहीं है मुझ से ,
जाने क्यों ऐसे सवालात ने दिल तोड़ दिया ।

April 16, 2008

मीना कुमारी

चाँद तन्हा है आस्मान तन्हा,
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा।

बुझ गयी आस छुप गया तारा ,
थर-थराता रहा धुआं तन्हा।

हमसफ़र कोई गर मिले भी कोई ,
दोनों चलते रहे तन्हा तन्हा।

जिन्दगी क्या इसी को कहते हैं ,
जिस्म तनहा है और जान तन्हा।


जलती बुझती सी रौशनी के परे,
सिमटा सिमटा सा एक मकान तन्हा।


राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगे ये जहाँ तन्हा।


मीना कुमारी

April 11, 2008

कैसे सुकून पाऊँ

कैसे सुकून पाऊँ तुझे देखने के बाद,
अब क्या ग़ज़ल सुनाऊं तुझे देखने के बाद।

आवाज़ दे रही है मेरी जिंदगी मुझे,
जाऊं मैं या न जाऊं तुझे देखने के बाद।

काबे का एहतराम भी मेरी नज़र में है,
सर किस तरफ़ झुकाऊँ तुझे देखने के बाद ।

तेरी निगाह-ऐ-मस्त ने मखमूर कर दिया,
क्या मैकदे को जाऊं तुझे देखने के बाद ।

नज़रों में ताब-ऐ-दीद ही बाक़ी नही रही,
किस से नज़र मिलाऊँ तुझे देखने के बाद।


सईद शाहीदी

April 7, 2008

खुशकिस्मत लोग

वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते-जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क किया कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आख़िर तंग आ कर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया

फैज अहमद फैज

March 29, 2008

इस मौसम में

बस एक वक्त का खंजर मेरी तलाश में है,
जो रोज़ भेष बदल कर मेरी तलाश में है।

मैं एक कतरा हूं मेरा अलग वजूद तो है,
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है ।

मैं देवता की तरह कैद अपने मन्दिर में,
वो मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है।

जिसके हाथ में एक फूल देके आया था,
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है।


कृष्ण बिहारी नूर





इक ग़ज़ल उस पे लिखूं दिल का तकाजा है बहुत,
इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत ।

रात हो दिन हो गफलत हो की बेदारी हो,
उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत ।

तशनगी के भी मुकामात हैं क्या क्या यानी,
कभी दरिया नहीं काफी, कभी कतरा है बहुत ।

कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है,
घर की दहलीज़ पा-ऐ-नूर उजाला है बहुत ।

कृष्ण बिहारी नूर


देखना है वो मुझ पर मेहरबान कितना है,
असलियत कहाँ तक है और गुमान कितना है।

क्या पनाह देती है और ये ज़मीन मुझ को,
और अभी मेरे सर पर आसमान कितना है ।

फिर उदास कर देगी सरसरी झलक उस की,
भूल कर ये दिल उस को शादमान कितना है।

कृष्ण बिहारी नूर

नज़र मिला न सके उस से उस निगाह के बाद,
वही है हाल हमारा जो हो गुनाह के बाद ।

मैं कैसे और किस सिम्त मोड़ता ख़ुद को ,
किसी की चाह न थी दिल में तेरी चाह के बाद ।

ज़मीर काँप तो जाता है आप कुछ भी कहें,
वो हो गुनाह से पहले के हो गुनाह के बाद ।

हवस ने तोड़ दी बरसों की साधना मेरी ,
गुनाह किया है ये जाना मगर गुनाह के बाद ।

गवाह चाह रहे थे वो बेगुनाही का
जुबां से कह न सका कुछ खुदा-गवाह के बाद ।

खतूत कर दिए वापिस मगर मेरी नींदें,
इन्हें भी छोड़ दो इक रहम की निगाह के बाद।

March 25, 2008

पहली सी मोहब्बत न मांग

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना माँग

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात
तेरा गम हैं तो गम-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम मे बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है

तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं हो जाये
यूँ ना था, मैं ने फकत चाहा था यूँ हो जाये
और भी दुःख हैं ज़माने मे मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना माँग

अनगिनत सदियों के तारीक़ बहीमाना तलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कम्ख्वाब में बुनवाये हुये
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाये हुए

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे

और भी दुःख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहते और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना माँग

'फैज़'

गालिब

दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द कि दवा क्या है।

हम हैं मुश्ताक और वो बेज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है।

मैं भी मुँह मे ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दा क्या है।

जब कि तुझ बिन नही कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ए खुदा क्या है।

हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है।

जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है।

मैंने माना कि कुछ नहीं ग़ालिब
मुफ़्त हाथ आये तो बुरा क्या है ।

ग़ालिब

बहार आई

बहार आई तो जैसे एक बार
लौट आये हैं फिर अदम से
वो ख़्वाब सारे, शबाब सारे
जो तेरे होंटों पे मर मिटे थे
जो मिट के हर बार फिर जिए थे
निखर गएँ हैं गुलाब सारे
जो तेरी यादों से मुश्क्बू हैं
जो तेरे उश्शाक का लहू हैं
उबल पड़े हैं अज़ाब सारे
मलाल-ए-अहवाल-ए-दोस्तां भी
खुमार-ए-आगोश-ए-महवशां भी
गुबार-ए-खातिर के बाब सारे
तेरे हमारे
सवाल सारे, जवाब सारे
बहार आई तो खुल गए हैं
नए सिरे से हिसाब सारे


'फैज़'

March 17, 2008

मोमिन

असर उसको ज़रा नहीं होता,
रंज राहत-फज़ा नहीं होता।

बे-वफ़ा कहने की शिकायत है,
तो भी वादा-वफ़ा नहीं होता।

जिक्र-ऐ-अगयार से हुआ मालूम,
हर्फ़-ऐ-नासेह बुरा नहीं होता।

तुम हमारे किसी तरह ना हुए,
वरना दुनिया में क्या नहीं होता।

उस ने क्या जाने क्या किया ले कर,
दिल किसी काम का नहीं होता।

इम्तिहान कीजिये मेरा जब तक,
शौक़ ज़ोर-आज़मा नहीं होता।

एक दुश्मन की चर्ख है, ना रहे,
तुझ से ये ऐ दुआ नहीं होता।

नारसाई से दम रुके तो रुके,
मैं किसी से ख़फा नहीं होता।

तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता।

हाल-ए-दिल यार को लिखूं क्यूँ-कर,
हाथ दिल से जुदा नहीं होता।

रहम कर, खस्म-ऐ-जान-ऐ-गैर ना हो,
सब का दिल एक सा नहीं होता।

दामन उसका जो है दराज़ तो हो,
दस्त-ए-आशिक रसा नहीं होता।

किसको है ज़ौक-ए-तल्ख़-कलामी लैक,
जंग बिन कुछ मज़ा नहीं होता।

चारा-ए-दिल सिवाय सब्र नहीं,
सो तुम्हारे सिवा नहीं होता।

क्यूँ सुने अर्ज़-ए-मुज़्तरिब ऐ मोमिन,
सनम आखिर खुदा नहीं होता।

फैज़ अहमद फैज़

सच है हम ही को आप के शिकवे बजा ना थे,
बेशक सितम जनाब के सब दोस्ताना थे।

हाँ जो जफ़ा भी आप ने की,कायदे से की,
हाँ हम ही काराबंद-ए-उसूल-ए-वफ़ा ना थे।

आये तो यूँ की जैसे हमेशा थे मेहरबान,
भूले तो यूँ की गोया कभी आशना ना थे।

फैज़

हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है,
दुशनाम तो नहीं है ये इकराम ही तो है।

दिल मुद्दई के हर्फ़-ए-मलामत से शाद है,
ए जान-ए-जां, ये हर्फ़ तेरा नाम ही तो है।

दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है,
लम्बी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है।

फैज़


गुलों मे रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले।

कफ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले।

कभी तो सुबह तेरे कुन्ज-ए-लब से हो आगाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले।

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल गरीब सही
तुम्हारे नाम पे आएंगे गमगुसार चले।

जो हम पे गुजरी सो गुजरी मगर शब-ए-हिजरां
हमारे अश्क तेरी आकबत संवार चले।

हुज़ूर-ए-यार हुई दफ्तर-ए-जुनून की तलब
गिरह मे लेके गरेबां के तार-तार चले।

मकाम कोई फैज़ राह मे जचा ही नही
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले।

फैज़


आये कुछ अब्र कुछ शराब आये
उसके बाद आये जो अज़ाब आये।


उम्र के हर वर्क पे दिल को नज़र
तेरी मेहर-ओ-वफ़ा के बाब आये।


कर रहा था गम-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बेहिसाब आये।


इस तरह अपनी खामोशी गूंजी
गोया हर सिम्त से जवाब आये।


'फैज़'


तुम न आये थे तो हर चीज़ वही थी के जो है
आसमाँ हद-ए-नज़र, राह-गुज़र राह-गुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
और अब शीशा-ए-मय, राह-गुज़र, रंग-ए-फ़लक
रंग है दिल का मेरे "खून-ए-जिगर होने तक"
चम्पई रंग कभी, राहत-ए-दीदार का रंग
सुरमई रंग के है सा'अत-ए-बेज़ार का रंग
ज़र्द पत्तों का, खस-ओ-ख़ार का रंग
सुर्ख फूलों का, दहकते हुए गुलज़ार का रंग
ज़हर का रंग, लहू-रंग, शब-ए-तार का रंग


आसमाँ, राह-गुज़र, शीशा-ए-मय
कोई भीगा हुआ दामन, कोई दुखती हुई रग
कोई हर लहज़ा बदलता हुआ आइना है
अब जो आये हो तो ठहरो के कोई रंग, कोई रुत, कोई शय
एक जगह पर ठहरे

फिर से एक बार हर एक चीज़ वही हो जो है
आसमाँ हद-ए-नज़र, राह-गुज़र राह-गुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय


'फैज़'


आ के वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिस ने दिल को परी-खाना बना रखा था.
जिसकी उल्फत में भुला रखी थी दुनिया हम ने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था.


आशनां हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है।

कारवाँ गुज़रे हैं जिन से उसी रानाई के
जिस की इन आंखों ने बे-सूद इबादत की है।


तुझ से खेली हैं वो महबूब हवाएं जिन में
उसके मलबूस की अफ्सुर्दा महक बाकी है.
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से महताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाकी है.


तू ने देखी है वो पेशानी, वो रुखसार, वो होंट
ज़िंदगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हम ने.
तुझ पे उठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें
तुझ को मालूम है क्यों उम्र गंवा दी हम ने.


हम पे मुस्कराते हैं एहसान गम-ए-उल्फत के
इतने एहसान की गिनवाऊं तो गिनवा न सकूं.
हम ने इस इश्क में क्या खोया है, क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ.


आजिज़ी सीखी, गरीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिर्मान के, दुख-दर्द के मानी सीखे
ज़ेर-दस्तों के मसाइब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रुख-ए-ज़र्द के मानी सीखे


जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बे-कस जिनके
अश्क आंखों में बिलखते हुए सो जाते हैं
न-तावानों के निवालों पे झपटते हैं उकाब
बाज़ू तोले हुए, मंडराते हुए आते हैं


जब कभी बिकता है बाज़ार में मजदूर का गोश्त
शाहराहों पे गरीबों का लहू बहता है
आग सी सीने में रह रह के उबलती है, ना पूछ!
अपने दिल पर मुझे काबू ही नहीं रहता है !!


'फैज़'


कभी कभी याद में उभरते हैं नक्श-ऐ-माज़ी मिटे मिटे से
वो आज़माइश दिल-ओ-नज़र की, वो कुर्बतें सी, वो फासले से।


कभी कभी आरज़ू के सेहरा में आ के रुकते हैं क़ाफिले से
वो सारी बातें लगाओ की सी, वो सारे उनवान विसाल के से।


निगाह-ओ-दिल को करार कैसा, निशात-ओ-ग़म में कमी कहाँ की?
वो जब मिले हैं तो उन से हर बार की है उल्फत नए सिरे से ।


तुम ही कहो रिंद-ओ-मुह्तसिब में है आज शब कौन फर्क ऐसा
ये आ के बैठे हैं मयकदे में, वो उठ के आए हैं मयकदे से ।


'फैज़'

ग़ालिब

आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक,
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक।


आशिकी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब,
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होने तक।


हमने माना की तगाफुल ना करोगे लेकिन,
ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक।


गम-ए-हस्ती का असद किस से हो जुज़ मर्ग ईलाज,
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक।

गालिब

ये ना थी हमारी किस्मत के विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।

तेरे वादे पे जिए हम तो ये जान झूठ जाना,
कि खुशी से मर ना जाते अगर ऐतबार होता।

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को,
यह खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।

कहूं किस से मैं की क्या है, शब्-ए-गम बुरी बला है,
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता।

हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों ना गर्क-ए-दरिया,
ना कभी जनाज़ा उठता, ना कहीं मज़ार होता ।


गालिब


हज़ारों ख्वाहिशें ऎसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।


मोहब्बत मे नहीं है फर्क जीने और मरने का,

उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पर दम निकले।



गालिब


दिल ही तो है ना संग-ए-खिश्त, दर्द से भर ना आये क्यों,
रोएंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों।


दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं,
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों।


क़ैद-ए-हयात-ओ-बंद-ए-गम असल मे दोनों एक हैं,
मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों।


हाँ वो नहीं खुदापरस्त, जाओ वो बेवफा सही,
जिसको हो दीन-ओ-दिल अज़ीज़, उसकी गली मे जाये क्यों।


गालिब-ए-खस्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं,
रोईये ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों।


गालिब

March 16, 2008

राजीव खन्ना

लोग लेते हैं लुत्फ़ मेरे तमाशा होने का,
देख तेरी मोहब्बत ने क्या इनाम दिए हैं मुझको

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वह आवाज देते हैं,बुलाते हैं अब हमें,
नादाँ हैं कोई समझाये की कब्र से जवाब कौन दे।

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उनकी आंखो से छलकती है मय की मस्ती,
लोग समझते हैं की हम मैखाने से आए हैं।

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ख़बर दे गए जमाने को शरमा के तुम,
लोग समझ गए की हमारा तुमसे कुछ रिश्ता है।

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सब पूछते हैं मुझ से इस दर्द का सबब,
तू बता किस अंदाज से तेरा नाम बयां करुं।

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सब समझते हैं के मैं इश्क का मारा हूँ
हाँ , अनजान हैं,
के उन्होंने अभी मेरा महबूब नही देखा ।

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ये किस्से हैं ना रांझे के, न फरहाद की बातें,
ये बातें हैं हमारी बातें - तुम्हारी बातें।

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यूँ ही कम है ज़िंदगी मोहब्बत के लिए ,
रूठ कर वक्त गवाने की ज़रुरत क्या है

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बिना शुरू किए उसने अंजाम लिख दिया
उसने किताब पे अपनी , मेरा नाम लिख दिया

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उठ के मत चले जाना
तुमसे रोशन कोना-कोना है,
ज़िंदगी और मौत का मतलब,
तुमको पाना और तुमको खोना है।



राजीव खन्ना





March 10, 2008

साहिर लुध्यानवी

तुमको ख़बर नहीं है मगर इक सादा लोह१ को,
बरबाद कर दिया तेरे दो दिन के प्यार ने।

१= सादा आदमी

***

लो आज हमने तोड़ दिया रिश्ता-ऐ-उम्मीद,
लो अब कभी गिला ना करेंगे किसी से हम।

***

किस दर्जा दिल-शिकन थे मोहब्बत के हादसे,
हम ज़िंदगी में फिर कोई अरमां ना कर सके।

***

सजा का हाल सुनाएं ज़जा1 की बात करें,
खुदा मिला हो जिन्हे वो खुदा की बात करें।

हर एक दौर का मजहब नया खुदा लाया,
करें तो हम भी मगर किस खुदा की बात करें।

वफ़ा-शियार2 कई हैं ,कोई हसीन भी तो हो,
चलो फिर आज उसी बेवफा की बात करें।

१= अच्छे कर्मों का फल
२=वफ़ा करने वाले

***

ये जमीन जिस कदर सजाई गयी,
जिन्दगी की तड़प बढाई गयी।

आईने से बिगड़ कर बैठ गए,
जिनकी सूरत जिन्हे दिखायी गई।

नस्ल दर नस्ल इंतजार रहा,
कसर1 टूटे ना बेनवाई२ गयी।

मौत पायी सलीब पर हमने ,
उमर बनबास में बितायी गई।

१= महल
२= गरीबी

***

लब१ पे पाबंदी तो है, अहसास पे पहरा तो है,
फिर भी अहल-ऐ-दिल2 को अहवाल-ऐ-बशर3 कहना तो है।

बुझ रहे हैं एक एक करके अकीदों4 के दीये,
इस अंधेरे का भी लेकिन सामना करना तो है।

१= बोलने
२= दिल वाले
३=आम आदमी का हाल
४=विश्वास

***

बहुत घुटन है,कोई सूरत-ऐ-बयां१ निकले,
अगर सदा२ ना उठे,कम से कम फुगां३ निकले।

फकीर-ऐ-शहर४ के तन पर लिबास बाकी है,
अमीर-ऐ-शहर५ के अरमां अभी कहाँ निकले।

हकीकतें हैं सलामत तो ख़ाब बहुतेरे,
उदास क्यों हो जो कुछ ख़ाब रायगां६ निकले।

उधर भी खाक उड़ी है ,उधर भी जख्म पड़े,
जिधर से होके बहारों के कारवां निकले।

सितम के दौर में हम अहल-ऐ-दिल७ ही काम आए,
जबाँ पे नाज था जिनको वो बेजबान निकले।

१= बताने का तरीका
२=बुलंद आवाज
३=दबी आवाज
४= ग़रीबों
५= अमीरों
६= बेकार
७= दिल वाले

***

मैं जिंदा हूँ ये मुश्तहर१ कीजिये,
मेरे कातिलों को ख़बर कीजिये।

जमीं सख्त है,आसमान दूर है,
बसर हो सके तो बसर कीजिये।

सितम के बहुत से हैं रद्द-ऐ-अमल२ ,
ज़रुरी नहीं चश्म-तर३ कीजिये।

१= बताना
२= प्रतिक्रिया
३= रोना

***

तुम ना जाने किस जहाँ में खो गए,
हम भरी दुनिया में तनहा हो गए।

***

अभी जिन्दां हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ खिल्वत१ में,
की अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैंने।
१= अकेले

March 7, 2008

कुछ और मिजाज

कुछ तो होते हैं मोहब्बत में जुनूं के आसार,
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं।

मुशाफी

आंखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा,
कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नही देखा।

पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला,
मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा।

बशीर बद्र

क्या कहें कैसे मरासम थे हमारे उसके,
वो जो इक शख्स है मुंह फेर के जाने वाला।

अहमद फराज


ऐ दोस्त हमने तर्क-ऐ-मोहब्बत के बावजूद,
महसूस की है तेरी जरूरत कभी-कभी।

नासिर काज़मी

आओ की कोई ख़ाब बुनें कल के वास्ते,
वरना ये रात आज के संगीन दौर की,
डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे की जान-ओ-दिल ,
ता-उम्र फिर ना कोई हसीं खाब बुन सकें।

साहिर लुध्यानवी

मिट चले मेरी उम्मीदों की तरह हर्फ़ मगर,
आज तक तेरे खतों से तेरी खुश्बु ना गई।

अख्तर शीरानी

गर जिंदगी में मिल गए फिर इत्तफाक से,
पूछेंगे अपना हाल तेरी बेबसी से हम।

साहिर लुध्यानवी


तुम ने किया ना याद कभी भूल कर हमें,
हम ने तुम्हारी याद में सब कुछ भुला दिया।

बहादुर शाह ज़फर

पी लिया करते हैं जीने की तमन्ना में कभी,
डगमगाना भी ज़रुरी है संभलने के लिये।

वामिक जौनपुरी

March 6, 2008

अपनी कलम से


अब तुम पर विश्वास नहीं है,
जीने का अहसास नहीं है।

दुःख की लम्बी डगर मौत तक,
खुशियों का आभास नहीं है।

रात बिताऊं तन्हाई में,
और सुबह की आस नही है।

पीङ तो उठती है रह-रह के,
दर्द मगर कुछ ख़ास नही है।

14-2-1997

रिश्ते सब से तर्क हो गए,
मेरे मुझ से फर्क हो गए।

प्रेम बिछुङ गया अल्फाजों से,
तलवारों के अर्थ हो गए।

8-3-1997


रविंद्र सिंह मान

अभी - अभी

सब्र कहता है कि रफ्ता-रफ्ता मिट जाएगा दाग,
दिल कहता है की बुझने की ये चिंगारी नही।

यास चंगेजी

खुश भी हो लेते हैं तेरे बेकरार,
गम ही गम हो ,इश्क में ऐसा नही।

फिराक गोरखपुरी

इश्क में खाब का ख्याल किसे,
लगी आँख ,जब से आँख लगी।

मीर मोहम्मद हयात

ईद का दिन है गले आज तो मिल ले जालिम,
रस्म--दुनिया भी है, मौका भी है, दस्तूर भी है।


कह दो इन हसरतों को कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहाँ है दिल--दागदार में।

उमर--दराज मांग कर लाये थे चार दिन,
दो आरजू में कट गए, दो इंतजार में।

बहादुर शाह ज़फर

कलेजे में हजारों दाग ,दिल में हसरतें लाखों,
कमाई ले चला हूँ साथ अपने जिंदगी भर की।

आगा शायर

जब मैंने कहा की मरता हूँ, मुंह फेर के बोले,
सुनते तो हैं पर इश्क के मारे नहीं देखे।

सादिक अली हुसैन

मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर,
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।

मजरूह सुल्तानपुरी



हर एक बात पे कहते हो तुम की तू क्या है,
तुम ही कहो कि ये अंदाज़
--गुफ़्तगू क्या है।

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
खुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है।


रही ना ताक़त--गुफ़्तार और अगर हो भी,
तो किस उम्मीद से कहिये की आरज़ू क्या है।


हुआ है शाह का मुसाहिब,फिर है इतराता
वगरना शहर में गालिब की आबरु क्या है ।



रगों में दौड़ते फिरने के हम नही कायल,
जो आँख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है।

गालिब

मत पूछ क्या हाल है मेरा तेरे पीछे,
तू देख की क्या रंग है तेरा मेरे आगे।

ईमान मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ्र,
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे।

गो हाथ को जुम्बिश नहीं, आँखों में तो दम है,
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे।



गालिब

दो -चार लफ्ज़ कह के मैं खामोश हो गया,
वो मुस्करा के बोले,बहुत बोलते हो तुम।

बर्क़

जब तक जिये, बिखरते रहे,टूटते रहे,
हम साँस -साँस क़र्ज़ की सूरत अदा हुए।

निदा फाज़ली

ये और बात है की तआरुफ़ हो सके,
हम ज़िन्दगी के साथ बहुत दूर तक गए।

खुर्शीद अहमद