December 30, 2010

दुःख फ़साना नहीं के तुझ से कहें

दुःख फ़साना नहीं के तुझ से कहें
दिल भी माना नहीं के तुझ से कहें

आज तक अपनी बेकली का सबब
खुद भी जाना नहीं के तुझ से कहें

एक तू हर्फ़ आशना था मगर
अब ज़माना नहीं के तुझ से कहें

बे -तरह दिल है और तुझ से
दोस्ताना नहीं के तुझ से कहें

खुदा दर्द - -दिल है बख्शीश - -दोस्त
आब - -दाना नहीं के तुझ से कहें

अहमद फ़राज़

दिल में किस दर्जा बेदिली है अभी

दिल में किस दर्जा बेदिली है अभी
हर खुशी जैसे अजनबी है अभी

फिर बढे हैं क़दम तेरी जानिब
तेरे गम में भी दिलकशी है अभी

[जानिब =towards/in the direction of]

मैं भी तुझ से बिछड़ के सर-गर्दां
तेरी आँखों में भी नमी है अभी

[सरगर्दां =distressed]

मैं ने माना बहुत अन्धेरा है
फिर भी थोड़ी सी रोशनी है अभी

December 26, 2010

इस का गिला नहीं

इस का गिला नहीं की दुआ बे-असर गई
इक आ़ह की थी वो भी कहीं जा के मर गई

हमनफ़स ना पूछ जवानी का माजरा
मौज--नसीम थी, इधर आई उधर गई

मौज--नसीम - wave of gentle breeze

दाम--गम-हयात में उलझा गई उम्मीद
हम ये समझ रहे थे कि एहसान कर गई

दाम--गम--हयात- Net of sorrows of life

इस ज़िन्दगी से हमको ना दुनिया मिली ना दीन
तकदीर का मुशाहिदा करते गुज़र गई

दीन - Religion
मुशाहिदा - Inspection

बस इतना होश था मुझे रोज़--विदा--दोस्त
वी़राना था नज़र में जहां तक नजर गई

हर मौज आब--सिंध हुई वक्फ--पेच--ताब
"महरूम" जब वतन में हमारी खबर हुई

आब--सिंध - Water of river sindh
वक्फ--पेच--ताब - Extremely angry


त्रिलोक चंद महरूम

किसे आवाज दूँ

किसको आती है मसीहाई किसे आवाज दूँ
बोल खूंखार तन्हाई किसे आवाज दूँ

चुप रहूँ तो हर नफ़स ड्सता है नागन की तरह
आह भरने में है रुसवाई किसे आवाज दूँ

उफ़ खामोशी की ये आहें दिल को भरमाती हुई
उफ़ ये सन्नाटे की शहनाई किसे आवाज दूँ


जोश मलीहाबादी



December 21, 2010

बारहा ऐसे भी अपने दिल को बहलाना पडा

बारहा ऐसे भी अपने दिल को बहलाना पड़ा
शाम -ऐ -तनहाई में यादों से लिपट जाना पड़ा

(बारहा : many times; शाम -ऐ -तन्हाई : a lonely evening)

हर दफा पहली शना-सईयाँ न याद आयीं उसे
हर दफा अपना तार्रुफ़ फिर से करवाना पड़ा

(शना -सईयाँ : acquaintances; तार्रुफ़ : introduction)

रेज़ा -रेज़ा हो गए हैं आज मेरे ख़्वाब फिर
आज एक पत्थर से फिर शीशे को टकराना पड़ा

(रेज़ा -रेज़ा : tatters)

ना -रसाईयों की थकन ने कर दिया हलकान फिर
दश्त से निकले तो वापिस दश्त में आना पड़ा

(ना -रसाई : out of reach; हलकान : counfused; दश्त : ruins)

फिर भी हम ने अक्ल को रहबर नहीं माना “जलील ”
दिल के गो हर फासिले पर हमें पछताना पड़ा

(रहबर : guide)

अहमद जलील

एक ख्वाब और

एक ख्वाब और

ख्वाब अब हुस्न - -तसव्वुर के उफक से हैं परे

दिल के एक जज्बा - -मासूम ने देखे थे जो खवाब
और ताबीरों के तपते हुए सहराओं में
तश्नगी आबला -पा , शोला -बकफ मौज - -सराब
ये तौ मुमकिन नहीं बचपन का कोई दिन मिल जाए
या पलट आये कोई आत - -नायाब - -शबाब
फूट निकले किसी अफ्सुर्दः तबस्सुम से किरण
या दमक उट्ठे किसी दस्त - -बुरीदः में गुलाब
आह ! पत्थर की लकीरें हैं के यादों के नुकूश
कौन लिख सकता है फिर उम्र - -गुज़िश्ता की किताब
बीते लम्हात के सोये हुए तूफानों में

तैरते फिरते हैं फूटी हुई आँखों के हबाब
ताबिश रंग - -शफक , आतिश रू - -खुर्शीद
मल के चेहरे पे सहर आयी है खून अहबाब
जाने किस मोड़ पे , किस राह में क्या बीती है
किस से मुमकिन है तमन्नाओं के ज़ख्मों का हिसाब
आस्तीनों को पुकारेंगे कहाँ तक आँसूं
अब तो दामन को पकड़ते हैं लहू के गर्दाब
देखती फिरती है एक एक का मुंह खामोशी
जाने क्या बात है शर्मिंदा है अंदाज़ - -खिताब
दर --दर ठोकरें खाते हुवे फिरते हैं सवाल
और मुजरिम की तरह उनसे गुरेज़ाँ हैं जवाब
सरकशी , फिर मैं तुझे आज सदा देता हूँ
मैं तेरा शायिर - -आवारा - -बे -बाक - -खराब
फ़ेंक फिर जज्बा - -बेताब की आलम पे कमंद
एक ख्वाब और आइ हिम्मत - -दुश्वार पसंद

अली सरदार जाफरी

December 20, 2010

हम उस से बच के चलते हैं

खामोशी बोल उठे, हर नज़र पैगाम हो जाये
ये सन्नाटा अगर हद से बढ़े, कोहराम हो जाये

सितारे मशालें ले कर मुझे भी ढूंडने निकलें
मैं रास्ता भूल जाऊं, जंगलों में शाम हो जाये

मैं वो आदम-गजीदा* हूँ जो तन्हाई के सहरा मैं
खुद अपनी चाप सुन कर लरज़ा-ब-अन्दाम हो जाये
[*आदम-गजीदा=आदमीयों का डसा हुआ]

मिसाल ऎसी है इस दौर-ए-खिरद के होश्मंदों की
न हो दामन में ज़र्रा और सहरा नाम हो जाये

शकेब अपने तार्रुफ़ के लिए ये बात काफी है
हम उस से बच के चलते हैं जो रास्ता आम हो जाये

शकेब जलाली

माँ है रेशम के कारखाने में

मां है रेशम के कारखाने में 
बाप मसरूफ सूती मिल में है 
कोख से मां की जब से निकला है 
बच्चा खोली के काले दिल में है 
जब यहाँ से निकल के जाएगा 
कारखानों के काम आयेगा 
अपने मजबूर पेट की खातिर 
भूक सर्माये की बढ़ाएगा 
हाथ सोने के फूल उगलेंगे 
जिस्म चांदी का धन लुटाएगा 
खिड़कियाँ होंगी बैंक की रोशन 
खून इसका दिए जलायेगा 
यह जो नन्हा है भोला भाला है 
खूनीं सर्माये का निवाला है 
पूछती है यह इसकी खामोशी 
कोई मुझको बचाने वाला है!

[सरमायेदार =capitalists] 

 अली सरदार जाफरी

जब चाहेगा बुला लेगा

मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा

यह एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा

मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चिराग नहीं हूँ जो फिर जला लेगा

मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा

हज़ार तोड़ के आ जाऊं उस से रिश्ता वसीम
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा

वसीम बरेलवी

एतबार

कही सुनी पे बोहत एतबार करने लगे
मेरे ही लोग मुझे संगसार* करने लगे

[*संगसार=पत्थर मारना, getting brickbats]

पुराने लोगों के दिल भी हैं खुशबुओं की तरह
ज़रा किसी से मिले, एतबार करने
लगे

नए ज़माने से आँखें नहीं मिला पाये
तो लोग गुज़रे ज़माने से प्यार करने लगे

कोई इशारा, दिलासा न कोई वादा मगर
जब आई शाम तेरा इंतज़ार करने लगे

हमारी सादामिजाजी कि दाद दे कि तुझे
बगैर परखे तेरा एतबार करने लगे

वसीम बरेलवी

December 14, 2010

कल और आज

(१)

कल भी बूंदे बरसी थीं
कल भी बादल छाए थे

और कवि ने सोचा था !

बादल ये आकाश के सपने, इन जुल्फों के साये हैं
दोश-ए-हवा पर मैखाने ही मैखाने घिर आये हैं
रुत बदलेगी, फूल खिलेंगे, झोंके मधु बरसाएंगे
उजले उजले खेतों में रंगीं आँचल लहरायेंगे
चरवाहे बंसी की धुन से गीत फ़ज़ा में बोयेंगे
आमों के झुण्डों के नीचे परदेसी दिल खोलेंगे
पींग बढ़ाती गोरी के माथे से कौंधे लपकेंगे
जोहङ के ठहरे पानी में तारे आँखे झपकेंगे
उलझी उलझी राहों में वो आँचल थामे आयेंगे
धरती, फूल, आकाश,सितारे सपना सा बन जायेंगे

कल भी बूंदे बरसी थीं
कल भी बादल छाए थे

और कवि ने सोचा था !

(२)

आज भी बूँदें बरसेंगी
आज भी बादल छाए हैं

और कवि इस सोच में है

बस्ती पर बादल छाए हैं, पर ये बस्ती किसकी है
धरती पर अमृत बरसेगा , पर ये धरती किसकी है
हल जोतेगी खेतों में अल्हड़ टोली दहकानों की
धरती से फूटेगी मेहनत फ़ाकाकश इंसानों की
फसलें काट के मेहनतकश, गल्ले के ढेर लगायेंगे
जागीरों के मालिक आकर सब पूँजी ले जायेंगे
बूढ़े दहकान के घर बनिए की कुर्की आएगी
और कर्जे के सूद में कोई गोरी बेचीं जायेगी
आज भी जनता भूकी है और कल भी जनता तरसी थी
आज भी रिम-झिम बरखा होगी, कल भी बारिश बरसी थी

आज भी बादल छाए हैं
आज भी बूंदे बरसेंगी

और कवि इस सोच में है !


साहिर लुध्यान्वी

December 10, 2010

मादाम

आप बेवजह परेशान सी क्यों हैं मादाम
लोग
कहते हैं तो फिर ठीक ही कहते होंगे
मेरे
अहबाब ने तहजीब ना सीखी होगी
मेरे
माहौल में इंसान ना रहते होंगे

मादाम - madam
अहबाब - friends, society

नूर-ए-सरमाया से है रू-ए-तम्द्दुन की ज़िला
हम जहां हैं वहां तहजीब नहीं पल सकती
मुफलिसी हिस॒से-लताफात को मिटा देती है
भूक आदाब के सांचे में नहीं ढल सकती

नूर-ए-सरमाया - light of wealth
रू-ए-तमद्दुन - the face of civilization
ज़िला - Brilliance
हिस॒से-लताफात - soft emotions
आदाब - manners

लोग कहते हैं तो लोगों पे ताज़ुब कैसा
सच तो कहते हैं कि नादारों की इज्ज़त
कैसी
लोग कहते हैं - मगर आप अभी तक चुप हैं
आप भी कहिये ग़रीबों में शराफत कैसी

नादारों - Poors

नेक मादाम! बहुत जल्द वो दौर आयेगा
जब
हमें जीस्त के अदवार परखने होंगे
अपनी जिल्लत कि कसम, आपकी अज़्मत कि क़सम
हमको ताज़ीम के म़यार परखने होंगे

जीस्त - Life
अदवार - Values
ज़िल्लत- Insult
अज़्मत - Greatness
ताज़ीम - Respect
मयार - Levels


हमने हर दौर में तजलील सही है लेकिन
हमने हर दौर के चेहरे को ज़िया बख्शी है
हमने हर दौर में मेहनत की सितम झेलें हैं
हमने हर दौर के हाथों को हिना बख्शी है

ज़िया - Brilliance


लेकिन इन तल्ख़ मुबाहिस से भला क्या हासिल
लोग कहते हैं तो फिर ठीक ही कहते होंगे
मेरे अहबाब ने तहजीब ना सीखी होगी
मैं जहां रहता हूँ इंसान ना रहते होंगे

तल्ख़ - Bitter
मुबाहिस - Debates



साहिर लुध्यानवी

December 8, 2010

रोने ना दिया


इश्क में ग़ैरत--जज्बात ने रोने ना दिया
वरना क्या बात थी किस बात ने रोने ना दिया

आप कहते थे के रोने से ना बदलेंगे हालात
उम्र भर आप की इस बात ने रोने ना दिया

रोनेवालों से कह दो उन का भी रोना रोलें
जिन को मज़बूरी--हालात ने रोने ना दिया

तुझ से मिलकर हमें रोना था बहुत रोना था
तंगी--वक़्त--मुलाक़ात ने रोने ना दिया

एक दो रोज़ का सदमा हो तो रो लें 'फाकिर'
हम को हर रोज़ के सद़मात ने रोने ना दिया


सुदर्शन फाकिर




December 7, 2010

याद


दश्त-ए-तन्हाई में ए जान-ए-जहां लर्जां हैं
तेरी आवाज़ के साए तेरे होंठो के सराब
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के खस-ओ-ख़ाक तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब

उठ रही है कहीं कुर्बत से तेरी सांस की आंच
अपनी खुशबु में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर उफक पर चमकती हुई कतरा कतरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम

उस कदर प्यार से ए जान-ए-जहां रखा है
दिल के रुखसार पे इस वक़्त तेरी याद ने हाथ
यूं गुमां होता है गरचे है अभी सुबह-ए-फिराक
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गयी वस्ल की रात


फैज़ अहमद फैज़

सबसे खतरनाक - अवतार सिंह पाश


मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती,
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुठ्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती


बैठे-बिठाए पकड़े जाना - बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना - बुरा तो है
पर सबसे खतरनाक नहीं होता


सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
ना होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना


सबसे खतरनाक वह आँख होती है
जो सब कुछ देखती हुई भी जमी बर्फ होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मुहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीज़ों से उठती अंधेपन की भाप पर ढुलक जाती है
जो रोजमर्रा के क्रम को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है


सबसे खतरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुर्दा धूप का टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए 





अवतार सिंह पाश

December 6, 2010

ज़िन्दगी ये तो नहीं तुझको संवारा ही ना हो


ज़िन्दगी ये तो नहीं तुझको संवारा ही
हो
कुछ ना कुछ तेरा एहसान उतारा ही
हो

कू-ए-कातिल की बड़ी धूम है, चल कर देख्नें
क्या खबर, कूचा-ए-दिलदार से प्यारा ही
हो

दिल को छू जाती है रात की आवाज कभी
चौंक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही न हो

कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर
सोचता हूँ तेरे आँचल का किनारा ही न हो

ज़िंदगी एक खलिश दे के न रह जा मुझको
दर्द वो दे जो किसी सूरत गवारा ही न हो

शर्म आती है के उस शहर में हम हैं के जहां
न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो



जां निसार अख्तर


December 5, 2010

मैं वक़्त पे घर क्यूं नहीं जाता..



बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यूं नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूं नहीं जाता

देखता हूं मैं उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते है जिधर सब मैं उधर क्यूं नहीं जाता

वो एक ही चेहरा तो नहीं है जहां में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यूं नहीं जाता

वो नाम ना जाने कब से, ना चेहरा ना बदन है
वो ख्वाब अगर है तो बिखर क्युं नहीं जाता

सब कुछ तो है क्या ढूंढती रहती है निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूं नहीं जाता

निदा फाजली

हम के ठहरे अजनबी

हम के ठहरे अजनबी इतनी मुदारातों के बाद
फिर बनेंगे आशना कितनी मुलाकातों के बाद

मुदारातों - courtesies

कब नज़र में आएगी बे-दाग़ सब्जे की बहार
खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद

सब्जे - garden

थे बहुत बे-दर्द लम्हे ख़त्म-ए-दर्द-ए-इश्क के
थीं बहुत बे-महर सुबहें महरबां रातों के बाद


दिल तो चाहा पर शिकस्त-ए-दिल ने मोहलत ही न दी
कुछ गिले शिकवे भी कर लेते, मुनाजातों के बाद

मुनाजातों - prayers

उनसे कहने जो गए थे फैज़ जां-सदका किये
अनकही ही रह गयी वो बात सब बातों के बाद

जां-सदका - On sake of life


फैज़ अहमद फैज़

अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं


अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शे़र फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं।

अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं।

आँखों में जो भर लोगे तो कांटो से चुभेंगे
ये ख़ाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं।

देखूं तेरे हाथों को तो लगता है तेरे हाथ
मंदिर में फ़कत दीप जलाने के लिए हैं।

सोचो तो बड़ी चीज़ है तहजीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं।

ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें
इक शख्स की यादों को भुलाने के लिए हैं।


जां निसार अख्तर



अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले


अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले
दश्त पड़ता है मियाँ इश्क में घर से पहले।

चल दिए उठ के सू-ए-सहर-ए-वफ़ा कू-ए-हबीब
पूछ लेना था किसी खाक बसर से पहले।

इश्क पहले भी किया हिज्र का गम भी देखा
इतने तड़पे हैं ना घबराए न तरसे पहले।

जी बहलता ही नहीं अब कोई सा'अत कोई पल
रात ढलती ही नहीं चार पहर से पहले।

हम किसी दर पे ना ठिठके ना कहीं दस्तक दी
सैकड़ों दर थे मेरी जान तेरे दर से पहले।

चाँद से आँख मिली जी का उजाला जागा
हम को सौ बार हुई सुबह सहर से पहले।


इब्ने इंशा

December 4, 2010

सभी कुछ है तेरा दिया हुआ


सभी कुछ है तेरा दिया हुआ सभी राहतें सभी कल्फतें,
कभी सोहबतें कभी फुर्कतें कभी दूरियाँ कभी कुर्बतें।

ये सुखन जो हमने रकम किये ये हैं सब वर्क तेरी याद के
कोई लम्हा सुबह-ए-विसाल का, कई शाम-ए-हिज्र की कुर्बतें।

जो तुम्हारी मान लें नासीहा तो रहेगा दामन-ए-दिल में क्या
ना किसी उदू की अदावतें ना किसी सनम की मुरव्वतें।

मेरी जान आज का गम ना कर, के ना जाने कातिब-ए-वक़्त ने
किसी अपने कल में भी भूल कर कहीं लिख रखी हों मसर्रतें।


फैज़ अहमद फैज़



इतेफाक

बरसों के बाद देखा इक शख्स दिलरुबा सा
अभी जहन में नहीं है पर नाम था भला सा

अबरू
खिंचे खिंचे से आखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहज़ा थका थका सा

अलफाज़ थे के जुगनु आवाज़ के सफ़र में

बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा


ख़्वाबों में ख़्वाब उसके यादों में याद उसकी
नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा

पहले भी लोग आये कितने ही ज़िंदगी में
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा

अगली मुहब्बत्तों ने वो नामुरादियाँ दीं
ताज़ा रफाक़तों से दिल था डरा डरा सा

कुछ ये के मुद्द्तों से हम भी नहीं थे रोये
कुछ ज़हर में बुझा था अहबाब का दिलासा

फिर यूं हुआ के सावन आंखो में आ बसे थे
फिर यूं हुआ के जैसे दिल भी था आबला सा

अब सच कहें तो यारों हम को खबर नहीं थी
बन जायेगा क़यामत इक वाक़या ज़रा सा

तेवर थे बेरूखी के अंदाज़ दोस्ती के
वो अजनबी था लेकिन लगता था आशना सा

हम दश्त थे के दरिया, हम ज़हर थे के अमृत
नाहक था ज़ोनुम हम को जब वो नहीं था प्यासा

हम ने भी उसको देखा कल शाम इत्तेफाक़न
अपना भी हाल है अब लोगों 'फराज़' का सा


अहमद फराज

ये ना थी हमारी किस्मत

ये ना थी हमारी किस्मत के विसाल-ए-यार होता ,
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता.

तेरे वादे पे जिए हम तो ये जान झूठ जाना
कि खुशी से मर ना जाते अगर ऐतबार होता

तेरी नाज़ुकी से जाना कि बांधा था अहद बोदा
कभी तू ना तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
यह ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासे
कोई चारासाज़ होता, कोई गमगुसार होता


रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर ना थमता
जिसे गम समझ रहे हो ये अगर शरार होता

गम अगरचे जां-गुसिल है पर कहाँ बचें कि दिल है
गम-ए-इश्क अगर ना होता गम-ए-रोज़गार होता

कहूं किस से मैं कि क्या है, शब्-ए-गम बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता

हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों ना गर्क-ए-दरिया
ना कभी जनाज़ा उठता, ना कहीं मज़ार होता

उसे कौन देख सकता कि यगना है वो यकता
अगर दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ, ये तेरा बयां ग़ालिब
तुझे हम वली समझते जो ना बादा-ख्वार होता



ग़ालिब

December 1, 2010

सोज-ए-गम देके मुझे

सोज-ए-गम देके मुझे उसने ये इरशाद किया,
जा तुझे कश-म-कश-ए-दहर से आज़ाद किया।

वो करें भी तो किन अलफ़ाज़ में तेरा शिकवा,
जिन को तेरी निगाह-ए-लुत्फ ने बर्बाद किया।

दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने ना दिया,
जब चली सर्द हवा मैं ने तुझे याद किया।

ऐसे में मैं तेरे तज-तकल्लुफ़ पे निसार,
फिर तो फरमाए वफ़ा आप ने इरशाद किया।

इस का रोना नहीं क्यों तुमने किया दिल बर्बाद,
इस का गम है कि बहुत देर में बर्बाद किया।

इतना मासूम हूँ फितरत से, कली जब चटकी,
झुक के मैंने कहा, मुझ से कुछ इरशाद किया।

मेरी हर सांस है इस बात कि शाहिद-ए-मौत,
मैंने हर लुत्फ़ के मौके पे तुझे याद किया।

मुझको तो होश नहीं तुमको खबर हो शायद,
लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बर्बाद किया।

वो तुझे याद करे जिसने भुलाया हो कभी,
हमने तुझ को ना भुलाया ना कभी याद किया।

कुछ नहीं इस के सिवा 'जोश' हरीफों का कलाम,
वस्ल ने शाद किया हिज्र ने नाशाद किया।


जोश मलीहाबादी