अब तुम पर विश्वास नहीं है,
जीने का अहसास नहीं है।
दुःख की लम्बी डगर मौत तक,
खुशियों का आभास नहीं है।
रात बिताऊं तन्हाई में,
और सुबह की आस नही है।
पीङ तो उठती है रह-रह के,
दर्द मगर कुछ ख़ास नही है।
14-2-1997
रिश्ते सब से तर्क हो गए,
मेरे मुझ से फर्क हो गए।
प्रेम बिछुङ गया अल्फाजों से,
तलवारों के अर्थ हो गए।
8-3-1997
रविंद्र सिंह मान
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