नज़र मिला न सके उस से उस निगाह के बाद,
वही है हाल हमारा जो हो गुनाह के बाद ।
मैं कैसे और किस सिम्त मोड़ता ख़ुद को ,
किसी की चाह न थी दिल में तेरी चाह के बाद ।
ज़मीर काँप तो जाता है आप कुछ भी कहें,
वो हो गुनाह से पहले के हो गुनाह के बाद ।
हवस ने तोड़ दी बरसों की साधना मेरी ,
गुनाह किया है ये जाना मगर गुनाह के बाद ।
गवाह चाह रहे थे वो बेगुनाही का
जुबां से कह न सका कुछ खुदा-गवाह के बाद ।
खतूत कर दिए वापिस मगर मेरी नींदें,
इन्हें भी छोड़ दो इक रहम की निगाह के बाद।