March 25, 2008

पहली सी मोहब्बत न मांग

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना माँग

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात
तेरा गम हैं तो गम-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम मे बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है

तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं हो जाये
यूँ ना था, मैं ने फकत चाहा था यूँ हो जाये
और भी दुःख हैं ज़माने मे मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना माँग

अनगिनत सदियों के तारीक़ बहीमाना तलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कम्ख्वाब में बुनवाये हुये
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाये हुए

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे

और भी दुःख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहते और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना माँग

'फैज़'

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