May 24, 2008

आँख मेरी तलवों से


आँख मेरी तलवों से मल जाए तो अच्छा

है हसरत-ए-पा-बोस निकल जाए तो अच्छा


जो चश्म के बे-नाम हों, वो हो कोर तो बेहतर

जो दिल के हो बे-दाग़ , वो जल जाए तो अच्छा


फुर्क़त में तेरी तार-ए-नफस सीने में मेरे

काँटा सा खटकता है, निकल जाए तो अच्छा


वो सुबह को आए तो करूं बातें मैं दो पहर

और चाहूँ के दिन थोडा सा ढ़ल जाए तो अच्छा


ढ़ल जाए जो दिन भी तो इसी तरह करूं शाम

और चाहूँ के गर आज से कल जाए तो अच्छा

जब कल हो तो फ़िर वही करूं कल की तरह से

गर आज का दिन भी यूंही टल जाए तो अच्छा


अल-किस्सा नहीं चाहता मैं, जाए वो याँ से

दिल उसका यहीं गरचे बहल जाए तो अच्छा


इब्राहीम ज़ौक

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