May 16, 2008

ताज महल

ताज तेरे लिए इक मजहर-ऐ-उल्फत ही सही
तुझ को इस वादी-ऐ-रंगीं से अकीदत ही सही

मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे

बज्म-ऐ-शाही में ग़रीबों का गुजर क्या मानी
सब्त जिस राह पे हों सतवत-ऐ-शाही के निशाँ
उस पे उल्फत भरी रूहों का सफर क्या मानी

मेरी महबूब पस-ऐ-परदा-ऐ-तश_हीर -ऐ-वफ़ा
तू ने सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मकाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक मकानों को तो देखा होता

अनगिनत लोगों ने दुनिया में मोहब्बत कि है
कौन कहता है के सादिक ना थे जज्बे उनके
लेकिन उनके लिए तश_हीर का सामान नहीं
क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफलिस थे

ये इमारात-ओ-मकाबिर ये फसीलें , ये हिसार
मुतला-कुलहुकम शहंशाहों की अजमत के सुतुं
दामन-ऐ-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिस में शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का खून

मेरी महबूब उन्हें भी तो मोहब्बत होगी
जिनकी सानाई ने बक्शी है इन्हें शक्ल-ऐ-जमील
उन के प्यारों के मकाबिर रहे बेनाम -ओ-नमुद
आज तक उन पे जलाई ना किसी ने कंदील

ये चमनजार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक्क़श दर-ओ-दिवार, ये मेहराब ये ताक
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों कि मोहब्बत का उड़ाया है मजाक

मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे

साहिर लुध्यानवी