कोई नई जमीं हो नया आसमां भी हो
ए दिल अब उसके पास चलें वो जहाँ भी हो
अफसुर्दगी-ए-दिल में सोज-ए-निहां भी हो
यानी बुझे दिलों से कुछ उठता धुआँ भी हो
इस दर्जा इख्तिलात और इतनी मुगायरत
तू मेरे और अपने कभी दरम्याँ भी हो
हम अपने गमगुसार-ए-मुहब्बत ना हो सके
तुम तो हमारे हाल पे कुछ मेहरबाँ भी हो
बज्म-ए-तस्सवुरात में ए दोस्त याद आ
इस महफ़िल-ए-निशात में गम का सामाँ भी हो
महबूब वो की सर से कदम तक खुलुस हो
आशिक वही कि हुस्न से कुछ बदगुमां भी हो
फिराक गोरखपुरी