March 29, 2008

इस मौसम में

बस एक वक्त का खंजर मेरी तलाश में है,
जो रोज़ भेष बदल कर मेरी तलाश में है।

मैं एक कतरा हूं मेरा अलग वजूद तो है,
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है ।

मैं देवता की तरह कैद अपने मन्दिर में,
वो मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है।

जिसके हाथ में एक फूल देके आया था,
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है।


कृष्ण बिहारी नूर





इक ग़ज़ल उस पे लिखूं दिल का तकाजा है बहुत,
इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत ।

रात हो दिन हो गफलत हो की बेदारी हो,
उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत ।

तशनगी के भी मुकामात हैं क्या क्या यानी,
कभी दरिया नहीं काफी, कभी कतरा है बहुत ।

कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है,
घर की दहलीज़ पा-ऐ-नूर उजाला है बहुत ।

कृष्ण बिहारी नूर


देखना है वो मुझ पर मेहरबान कितना है,
असलियत कहाँ तक है और गुमान कितना है।

क्या पनाह देती है और ये ज़मीन मुझ को,
और अभी मेरे सर पर आसमान कितना है ।

फिर उदास कर देगी सरसरी झलक उस की,
भूल कर ये दिल उस को शादमान कितना है।