May 19, 2008

मता-ए-गैर

मेरे खा़बों के झरोखों को सजाने वाली
तेरे खा़बों में कहीं मेरा गुजर है के नहीं
पूछकर अपनी निगाहों से बता दे मुझको
मेरी रातों के मुकद्दर में सहर है के नहीं

चार दिन की ये रफाकत जो रफाकत भी नहीं
उम्र भर के लिए आजार हुई जाती है
ज़िंदगी यूं तो हमेशा से परेशान सी थी
अब तो हर साँस गिरां बार हुई जाती है

मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में
तू किसी खाब के पैकर की तरह आई है
कभी अपनी सी , कभी गैर नज़र आती है
कभी इख्लास की मूरत कभी हरजाई है

प्यार पर बस तो नहीं है मेरा, लेकिन फ़िर भी
तू बता दे के तुझे प्यार करूं या ना करूं
तुने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें
उन तमन्नाओं का इजहार करूं या न करूं

तू किसी और के दामन की कली है लेकिन
मेरी रातें तेरी खुशबू से बसी रहती हैं
तू कहीं भी हो तिरे फूल से आरिज़ कि कसम
तेरी पलकें मिरी आंखों पे झुकी रहती हैं

तेरे हाथों की हरारत, तेरे साँसों की महक
तैरती रहती है एहसास की पहनाई में
ढूँढती रहती हैं तखईल की बाहें तुझको
सर्द रातों की सुलगती हुई तन्हाई में

तेरा अल्ताफ-ओ-करम एक हकीकत है मगर
ये हकीकत भी हकीकत में फ़साना ही न हो
तेरी मानूस निगाहों का ये मोह्तात पयाम
दिल के खूँ करने का एक और बहाना ही ना हो

कौन जाने मेरे इमरोज़ का फरदा क्या है
कुर्बतें बढ़ कर पशेमाँ भी हो जाती हैं
दिल के दामन से लिपटी हुई रंगीन नज़रें
देखते-देखते, अनजान भी हो जाती हैं

मिरी दर्मान्दा जवानी की तमन्नाओं के
मुज्म्हिल खाब की ताबीर बता दे मुझको
तेरे दामन में गुलसिताँ भी हैं, वीराने भी
मेरा हासिल, मिरी तकदीर बता दे मुझको

साहिर लुध्यानवी



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