March 17, 2008

मोमिन

असर उसको ज़रा नहीं होता,
रंज राहत-फज़ा नहीं होता।

बे-वफ़ा कहने की शिकायत है,
तो भी वादा-वफ़ा नहीं होता।

जिक्र-ऐ-अगयार से हुआ मालूम,
हर्फ़-ऐ-नासेह बुरा नहीं होता।

तुम हमारे किसी तरह ना हुए,
वरना दुनिया में क्या नहीं होता।

उस ने क्या जाने क्या किया ले कर,
दिल किसी काम का नहीं होता।

इम्तिहान कीजिये मेरा जब तक,
शौक़ ज़ोर-आज़मा नहीं होता।

एक दुश्मन की चर्ख है, ना रहे,
तुझ से ये ऐ दुआ नहीं होता।

नारसाई से दम रुके तो रुके,
मैं किसी से ख़फा नहीं होता।

तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता।

हाल-ए-दिल यार को लिखूं क्यूँ-कर,
हाथ दिल से जुदा नहीं होता।

रहम कर, खस्म-ऐ-जान-ऐ-गैर ना हो,
सब का दिल एक सा नहीं होता।

दामन उसका जो है दराज़ तो हो,
दस्त-ए-आशिक रसा नहीं होता।

किसको है ज़ौक-ए-तल्ख़-कलामी लैक,
जंग बिन कुछ मज़ा नहीं होता।

चारा-ए-दिल सिवाय सब्र नहीं,
सो तुम्हारे सिवा नहीं होता।

क्यूँ सुने अर्ज़-ए-मुज़्तरिब ऐ मोमिन,
सनम आखिर खुदा नहीं होता।

2 comments:

अमिताभ मीत said...

ऎसी ग़ज़ल फिर नहीं लिखी जा सकी. ये बेमिसाल है.

Dr. Ravindra S. Mann said...

beshak !