May 10, 2008

ग़ालिब

कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाये है मुझ से,

जफायें कर के अपनी याद शर्मा जाये है मुझ से।

खुदाया, जज़्बा-ऐ-दिल की मगर तासीर उल्टी है,

के जितना खींचता हूँ और खिंचता जाये है मुझ से।

वो बद-खू और मेरी दास्तान-ऐ-इश्क तूलानी,

इबारत मुख्तसर, क़ासिद भी घबरा जाये है मुझ से ।

उधर वो बद-गुमानी है, इधर ये नातुवानी है,

ना पूछा जाये है उस से, ना बोला जाये है मुझ से ।

संभलने दे मुझे ऐ ना-उम्मीदी क्या क़यामत है,

कि दामन-ऐ-ख़याल-ऐ-यार छूटा जाये है मुझ से ।

तकल्लुफ़ बर-तरफ़ नज्ज़ारगी मैं भी सही लेकिन,

वो देखा जाये कब ये ज़ुल्म देखा जाये है मुझ से ।

हुए हैं पाँव ही पहले नबर्द-ऐ-इश्क में ज़ख्मी,

ना भागा जाये है मुझ से ना ठहरा जाये है मुझ से ।

क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफर गालिब,

वो क़ाफिर जो खुदा को भी ना सौंपा जाये है मुझ से ।

ग़ालिब