आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक,
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक।
आशिकी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब,
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होने तक।
हमने माना की तगाफुल ना करोगे लेकिन,
ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक।
गम-ए-हस्ती का असद किस से हो जुज़ मर्ग ईलाज,
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक।
गालिब
ये ना थी हमारी किस्मत के विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।
तेरे वादे पे जिए हम तो ये जान झूठ जाना,
कि खुशी से मर ना जाते अगर ऐतबार होता।
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को,
यह खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।
कहूं किस से मैं की क्या है, शब्-ए-गम बुरी बला है,
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता।
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों ना गर्क-ए-दरिया,
ना कभी जनाज़ा उठता, ना कहीं मज़ार होता ।
गालिब
हज़ारों ख्वाहिशें ऎसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।
मोहब्बत मे नहीं है फर्क जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पर दम निकले।
गालिब
दिल ही तो है ना संग-ए-खिश्त, दर्द से भर ना आये क्यों,
रोएंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों।
दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं,
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों।
क़ैद-ए-हयात-ओ-बंद-ए-गम असल मे दोनों एक हैं,
मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों।
हाँ वो नहीं खुदापरस्त, जाओ वो बेवफा सही,
जिसको हो दीन-ओ-दिल अज़ीज़, उसकी गली मे जाये क्यों।
गालिब-ए-खस्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं,
रोईये ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों।
गालिब
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