सोज-ए-गम देके मुझे उसने ये इरशाद किया,
जा तुझे कश-म-कश-ए-दहर से आज़ाद किया।
वो करें भी तो किन अलफ़ाज़ में तेरा शिकवा,
जिन को तेरी निगाह-ए-लुत्फ ने बर्बाद किया।
दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने ना दिया,
जब चली सर्द हवा मैं ने तुझे याद किया।
ऐसे में मैं तेरे तज-तकल्लुफ़ पे निसार,
फिर तो फरमाए वफ़ा आप ने इरशाद किया।
इस का रोना नहीं क्यों तुमने किया दिल बर्बाद,
इस का गम है कि बहुत देर में बर्बाद किया।
इतना मासूम हूँ फितरत से, कली जब चटकी,
झुक के मैंने कहा, मुझ से कुछ इरशाद किया।
मेरी हर सांस है इस बात कि शाहिद-ए-मौत,
मैंने हर लुत्फ़ के मौके पे तुझे याद किया।
मुझको तो होश नहीं तुमको खबर हो शायद,
लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बर्बाद किया।
वो तुझे याद करे जिसने भुलाया हो कभी,
हमने तुझ को ना भुलाया ना कभी याद किया।
कुछ नहीं इस के सिवा 'जोश' हरीफों का कलाम,
वस्ल ने शाद किया हिज्र ने नाशाद किया।
जोश मलीहाबादी
1 comment:
जोश साहब की बहुत अच्छी ग़ज़ल। पढ़ कर देर तक बेखुदी का आलम रहा। भगवान उनका नाम अमर बनाए रखे। इसे पोस्ट करने वाले हाथों को भी दिल से सलाम।
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