December 14, 2010

कल और आज

(१)

कल भी बूंदे बरसी थीं
कल भी बादल छाए थे

और कवि ने सोचा था !

बादल ये आकाश के सपने, इन जुल्फों के साये हैं
दोश-ए-हवा पर मैखाने ही मैखाने घिर आये हैं
रुत बदलेगी, फूल खिलेंगे, झोंके मधु बरसाएंगे
उजले उजले खेतों में रंगीं आँचल लहरायेंगे
चरवाहे बंसी की धुन से गीत फ़ज़ा में बोयेंगे
आमों के झुण्डों के नीचे परदेसी दिल खोलेंगे
पींग बढ़ाती गोरी के माथे से कौंधे लपकेंगे
जोहङ के ठहरे पानी में तारे आँखे झपकेंगे
उलझी उलझी राहों में वो आँचल थामे आयेंगे
धरती, फूल, आकाश,सितारे सपना सा बन जायेंगे

कल भी बूंदे बरसी थीं
कल भी बादल छाए थे

और कवि ने सोचा था !

(२)

आज भी बूँदें बरसेंगी
आज भी बादल छाए हैं

और कवि इस सोच में है

बस्ती पर बादल छाए हैं, पर ये बस्ती किसकी है
धरती पर अमृत बरसेगा , पर ये धरती किसकी है
हल जोतेगी खेतों में अल्हड़ टोली दहकानों की
धरती से फूटेगी मेहनत फ़ाकाकश इंसानों की
फसलें काट के मेहनतकश, गल्ले के ढेर लगायेंगे
जागीरों के मालिक आकर सब पूँजी ले जायेंगे
बूढ़े दहकान के घर बनिए की कुर्की आएगी
और कर्जे के सूद में कोई गोरी बेचीं जायेगी
आज भी जनता भूकी है और कल भी जनता तरसी थी
आज भी रिम-झिम बरखा होगी, कल भी बारिश बरसी थी

आज भी बादल छाए हैं
आज भी बूंदे बरसेंगी

और कवि इस सोच में है !


साहिर लुध्यान्वी

2 comments:

जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar said...

बहुत ख़ूब...इस रचना के लिए साधुवाद!
क्या ख़ूब रूपक और बिम्ब-विधान साधा गया है यहाँ...यह तो शाइर के उत्कृष्ट चिंतन और भाव-प्रवणता के चलते संभव हो पाया है...वरना आजकल तो ज़्यादातर शाइर अभिधा का ही दामन थामे दिखते हैं!

नुकूश said...

हुस्न दिलकशी व जज्बात के साहिर जिन की साहिरी में ..बड़ी बड़ी हस्तियाँ खो गई .. एक ऐसा शेर जिस ने आसन ज़बान में मुश्किल ख़यालात को यकजा कर दिया ! बहुत ही अच्छी कविता है इस इन्तेक्हब के लिए मुबारकबाद कुबूल कीजिये .
साहिर से मुताल्लिक एक दिलचस्प मज़मून यहाँ भी देखा जा सकता है
http://www.nuqoosh.in/urdu-literature-in-hindi/sahir-ludhiyanwi-life-rashid-ashraf/