December 6, 2010
ज़िन्दगी ये तो नहीं तुझको संवारा ही ना हो
ज़िन्दगी ये तो नहीं तुझको संवारा ही न हो
कुछ ना कुछ तेरा एहसान उतारा ही न हो
कू-ए-कातिल की बड़ी धूम है, चल कर देख्नें
क्या खबर, कूचा-ए-दिलदार से प्यारा ही न हो
दिल को छू जाती है रात की आवाज कभी
चौंक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही न हो
कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर
सोचता हूँ तेरे आँचल का किनारा ही न हो
ज़िंदगी एक खलिश दे के न रह जा मुझको
दर्द वो दे जो किसी सूरत गवारा ही न हो
शर्म आती है के उस शहर में हम हैं के जहां
न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो
जां निसार अख्तर
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1 comment:
जां निसार जी की इतनी अच्छी ग़ज़ल पढ़वाने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया....
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