December 20, 2010

हम उस से बच के चलते हैं

खामोशी बोल उठे, हर नज़र पैगाम हो जाये
ये सन्नाटा अगर हद से बढ़े, कोहराम हो जाये

सितारे मशालें ले कर मुझे भी ढूंडने निकलें
मैं रास्ता भूल जाऊं, जंगलों में शाम हो जाये

मैं वो आदम-गजीदा* हूँ जो तन्हाई के सहरा मैं
खुद अपनी चाप सुन कर लरज़ा-ब-अन्दाम हो जाये
[*आदम-गजीदा=आदमीयों का डसा हुआ]

मिसाल ऎसी है इस दौर-ए-खिरद के होश्मंदों की
न हो दामन में ज़र्रा और सहरा नाम हो जाये

शकेब अपने तार्रुफ़ के लिए ये बात काफी है
हम उस से बच के चलते हैं जो रास्ता आम हो जाये

शकेब जलाली

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