December 7, 2010

याद


दश्त-ए-तन्हाई में ए जान-ए-जहां लर्जां हैं
तेरी आवाज़ के साए तेरे होंठो के सराब
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के खस-ओ-ख़ाक तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब

उठ रही है कहीं कुर्बत से तेरी सांस की आंच
अपनी खुशबु में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर उफक पर चमकती हुई कतरा कतरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम

उस कदर प्यार से ए जान-ए-जहां रखा है
दिल के रुखसार पे इस वक़्त तेरी याद ने हाथ
यूं गुमां होता है गरचे है अभी सुबह-ए-फिराक
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गयी वस्ल की रात


फैज़ अहमद फैज़

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