May 27, 2008
हम भूल गए हों ऐसा भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं
सौदा = पागलपन
तर्क-ए-मोहब्बत = मोहब्बत का टूटना
यूं तो हंगामें उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क
मगर ए दोस्त ऐसों का कुछ ठिकाना भी नहीं
मुद्दतें गुज़रीं तेरी याद भी आई ना हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
ये भी सच है के मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है के तेरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं
दिल की गिनती ना यगनों में ना बेगानों में
लेकिन इस जल्वागाह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं
यगना = जानकार
जल्वागाह = यहाँ कोई कार्यक्रम हो रहा हो
बदगुमां हो के मिल ए दोस्त जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुए मिलना कोई मिलना भी नहीं
बदगुमां = बिना शक
शिकवा-ए-ज़ौर करे क्या कोई उस शोख से जो
साफ कायल भी नहीं साफ मुकरता भी नहीं
शिकवा-ए-जौर = जुल्म कि शिकायत
मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ए दोस्त
आह मुझसे तो मेरी रंजिश-ए-बेजाँ भी नहीं
बात ये है की सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मकाम
कुञ्ज-ए-जिन्दां भी नहीं वुसात-ए-सेहरा भी नहीं
मकाम = मंजील
कुञ्ज-ए-जिन्दां = जेल का कोना
वुसात-ए-सेहरा = रेगिस्तान का विस्तार
मुंह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते , के 'फिराक'
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं
फ़िराक गोरखपुरी
May 26, 2008
भुलाता लाख हूँ
इलाही तर्क-ए-उल्फत पर वो क्योंकर याद आते हैं
ना छेड़ ऐ हमनशीं कैफिअत-ए-सहबा के अफ़साने
शराब-ए-बेखुदी के मुझ को सागर याद आते हैं
रहा करते हैं कैद-ए-होश में ऐ वाये नाकामी
वो दश्त-ए-ख़ुद फरामोशी के चक्कर याद आते हैं
नहीं आती तो याद उनकी महीनों भर नहीं आती
मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं
हकीकत खुल गयी 'हसरत' तेरे तर्क-ए-मोहब्बत की
तुझे तो अब वो पहले से भी बढ़कर याद आते हैं
हसरत मोहानी
May 25, 2008
दिल से जिगर तक
पिघला हुआ रगों में इक आतिश-फिशां है आज
जू-ए-दर्द = दर्द की नदी
आतिश-फिशां = ज्वालामुखी
लब सी दिए हैं ता न शिकायत करे कोई
लेकिन हर एक ज़ख्म के मुँह में जबां है आज
तारीकियों ने घेर लिया है हयात को
लेकिन किसी का रू-ए-हसीं दरमि्याँ है आज
तारीकियों = अंधेरों
रू-ए-हसीं = सुंदर चेहरा
जीने का वक्त है यही मरने का वक्त है
दिल अपनी जिंदगी से बहुत शादमां है आज
शादमां= खुश
हो जाता हूँ शहीद हर अहल-ए-वफ़ा के साथ
हर दास्तान-ए-शौक़ मेरी दास्ताँ है आज
अहल-ए-वफ़ा = वफ़ा करने वाला
दास्तान-ए-शौक़ = प्रेम कि कहानी
आए हैं किस निशा़त से हम क़त्लगाह में
ज़ख्मों से दिल है चूर, नज़र गुल-फिशां है आज
निशा़त= खुशी
क़त्लगाह= वध स्थल
गुल-फिशां = फूल फैलाने वाली
जिन्दानियों ने तोड़ दिया ज़ुल्म का गुरूर
वो दबदबा, वो रौब-ए-हुकूमत कहाँ है आज
जिन्दानियों= कैदीयों
अली सरदार जाफरी
May 24, 2008
आँख मेरी तलवों से
आँख मेरी तलवों से मल जाए तो अच्छा
है हसरत-ए-पा-बोस निकल जाए तो अच्छा
जो चश्म के बे-नाम हों, वो हो कोर तो बेहतर
जो दिल के हो बे-दाग़ , वो जल जाए तो अच्छा
फुर्क़त में तेरी तार-ए-नफस सीने में मेरे
काँटा सा खटकता है, निकल जाए तो अच्छा
वो सुबह को आए तो करूं बातें मैं दो पहर
और चाहूँ के दिन थोडा सा ढ़ल जाए तो अच्छा
ढ़ल जाए जो दिन भी तो इसी तरह करूं शाम
और चाहूँ के गर आज से कल जाए तो अच्छा
जब कल हो तो फ़िर वही करूं कल की तरह से
गर आज का दिन भी यूंही टल जाए तो अच्छा
अल-किस्सा नहीं चाहता मैं, जाए वो याँ से
दिल उसका यहीं गरचे बहल जाए तो अच्छा
इब्राहीम ज़ौक
May 23, 2008
दिन कुछ ऐसे
जैसे एहसान उतारता है कोई
आईना देखकर तसल्ली हुई
हमको इस घर में जानता है कोई
पक गया है शज़र पे फल शायद
फ़िर से पत्थर उछालता है कोई
फ़िर नज़र में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुगालता है कोई
देर से गूंजते हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई
गुलज़ार
May 22, 2008
काम ना आएगा कोई दिल के सिवा
रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-कातिल के सिवा
बाईस-ए-रश्क है तन्हारवी-ए-रहरौ-ए-शौक़
हमसफ़र कोई नहीं दूरी-ए-मंजिल के सिवा
हम ने दुनिया कि हर इक शै से उठाया दिल को
लेकिन इक शोख के हंगामा-ए-महफ़िल के सिवा
तेग मुंसिफ हो जहाँ, दार-ओ-रसन हों शाहिद
बेगुनाह कौन है उस शहर में कातिल के सिवा
जाने किस रंग से आई है गुलशन में बहार
कोई नगमा ही नहीं शोर -ए-सिलासिल के सिवा
अली सरदार जाफरी
May 21, 2008
आदतन
आदतन हम ने ऐतबार किया
तेरी राहों में बारहा रूककर
हमने अपना ही इंतज़ार किया
अब ना मांगेंगे ज़िंदगी या रब
ये गुनाह हम ने एक बार किया
गुलज़ार
May 20, 2008
ना जाना आज तक
हमारी जिंदगी भी जिंदगी है
तेरे गम से शिकायत सी रही है
मुझे सचमुच बड़ी शर्मिंदगी है
मोहब्बत में कभी सोचा है यूं भी
कि तुझसे दोस्ती या दुश्मनी है
कोई दम का हूँ मेहमान मुंह ना फेरो
अभी आंखों में कुछ कुछ रोशनी है
ज़माना ज़ुल्म मुझ पर कर रहा है
तुम ऐसा कर सको तो बात भी है
झलक मासूमियों में शोखियों की
बहुत रंगीन तेरी सादगी है
इसे सुन लो सबब इसका ना पुछो
मुझे तुमसे मोहब्बत हो गई है
सुना है इक नगर है आँसुओं का
उसी का दूसरा नाम आँख भी है
वही तेरी मोहब्बत की कहानी
जो कुछ भूली हुई कुछ याद भी है
तुम्हारा ज़िक्र आया इत्तेफा़कन
ना बिगङो बात पर बात आ गयी है
फ़िराक गोरखपुरी
May 19, 2008
कोई नई जमीं हो
ए दिल अब उसके पास चलें वो जहाँ भी हो
अफसुर्दगी-ए-दिल में सोज-ए-निहां भी हो
यानी बुझे दिलों से कुछ उठता धुआँ भी हो
इस दर्जा इख्तिलात और इतनी मुगायरत
तू मेरे और अपने कभी दरम्याँ भी हो
हम अपने गमगुसार-ए-मुहब्बत ना हो सके
तुम तो हमारे हाल पे कुछ मेहरबाँ भी हो
बज्म-ए-तस्सवुरात में ए दोस्त याद आ
इस महफ़िल-ए-निशात में गम का सामाँ भी हो
महबूब वो की सर से कदम तक खुलुस हो
आशिक वही कि हुस्न से कुछ बदगुमां भी हो
फिराक गोरखपुरी
मता-ए-गैर
तेरे खा़बों में कहीं मेरा गुजर है के नहीं
पूछकर अपनी निगाहों से बता दे मुझको
मेरी रातों के मुकद्दर में सहर है के नहीं
चार दिन की ये रफाकत जो रफाकत भी नहीं
उम्र भर के लिए आजार हुई जाती है
ज़िंदगी यूं तो हमेशा से परेशान सी थी
अब तो हर साँस गिरां बार हुई जाती है
मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में
तू किसी खाब के पैकर की तरह आई है
कभी अपनी सी , कभी गैर नज़र आती है
कभी इख्लास की मूरत कभी हरजाई है
प्यार पर बस तो नहीं है मेरा, लेकिन फ़िर भी
तू बता दे के तुझे प्यार करूं या ना करूं
तुने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें
उन तमन्नाओं का इजहार करूं या न करूं
तू किसी और के दामन की कली है लेकिन
मेरी रातें तेरी खुशबू से बसी रहती हैं
तू कहीं भी हो तिरे फूल से आरिज़ कि कसम
तेरी पलकें मिरी आंखों पे झुकी रहती हैं
तेरे हाथों की हरारत, तेरे साँसों की महक
तैरती रहती है एहसास की पहनाई में
ढूँढती रहती हैं तखईल की बाहें तुझको
सर्द रातों की सुलगती हुई तन्हाई में
तेरा अल्ताफ-ओ-करम एक हकीकत है मगर
ये हकीकत भी हकीकत में फ़साना ही न हो
तेरी मानूस निगाहों का ये मोह्तात पयाम
दिल के खूँ करने का एक और बहाना ही ना हो
कौन जाने मेरे इमरोज़ का फरदा क्या है
कुर्बतें बढ़ कर पशेमाँ भी हो जाती हैं
दिल के दामन से लिपटी हुई रंगीन नज़रें
देखते-देखते, अनजान भी हो जाती हैं
मिरी दर्मान्दा जवानी की तमन्नाओं के
मुज्म्हिल खाब की ताबीर बता दे मुझको
तेरे दामन में गुलसिताँ भी हैं, वीराने भी
मेरा हासिल, मिरी तकदीर बता दे मुझको
साहिर लुध्यानवी
May 18, 2008
इंतिज़ार का मौसिम
नहीं है कोई भी मौसिम बहार का मौसिम
गिरां है दिल पे गम-ए-रोजगार का मौसिम
है आ़जमाइश-ए -हुस्न-ऐ-निगार का मौसिम
खुशा नजारा-ए-रुखसार-ए-यार कि साअत
खुशा करार-ए-दिल-ए-बेकरार का मौसिम
हदीस-ए-बादा-ओ-साकी नहीं, तो किस मसरफ
खिराम-ए-अब्र-ए-सर-ए-कोहसार का मौसिम?
नसीब सोहबत-ए-यारां नहीं, तो क्या कीजे
ये रक्स-ए-साया-ए-सर्व-ओ-चिनार का मौसिम?
ये दिल के दाग तो दुखते थे यूँ भी, पर कम कम
कुछ अब के और है हिजरां-ए-यार का मौसिम
यही जूनून का, यही तौक-ओ-दार का मौसिम
यही है जब्र, यही इख्तियार का मौसिम
कफ़स है बस में तुम्हारे, तुम्हारे बस में नहीं
चमन में आतिश-ए-गुल के निखार का मौसिम
सबा की मस्त खिरामी तह-ए-कमंद नहीं
असीर-ए-दाम नहीं है बहार का मौसिम
बला से, हम ने न देखा तो और देखेंगे
फुरोग़-ए-गुलशन-ओ-सौत-ए-हज़ार का मौसिम
फैज़ अहमद फैज़
May 17, 2008
गालिब
फिर ग़लत क्या है की हमसा कोई पैदा ना हुआ
बंदगी में भी वो आज़ादा-ओ-ख़ुद-बीन हैं कि हम
उल्टे फिर आए दर-ऐ-काबा अगर वा ना हुआ
सब को मक़बूल है दावा तेरी यकताई का
रू-ब-रू कोई बुत-ऐ-आइना-सीमा ना हुआ
कम नहीं नाज़िश-ऐ-हमनामी-ऐ-चश्म-ऐ-खूबाँ
तेरा बीमार बुरा क्या है गर अच्छा ना हुआ
सीने का दाग है वो नाला कि लब तक ना गया
ख़ाक का रिज़्क़ है वो क़तरा कि दरिया ना हुआ
नाम का मेरे है जो दुःख कि किसी को ना मिला
काम में मेरे है जो फितना कि बर-पा ना हुआ
हर बुन-ऐ-मू से दम-ऐ-ज़िक्र ना टपके खून-नाब
हमज़ा का किस्सा हुआ, इश्क़ का चर्चा ना हुआ
कतरे में दिजला दिखाई ना दे और जुज़्व में कुल
खेल लड़कों का हुआ, दीदा-ऐ-बीना ना हुआ
थी ख़बर गर्म कि गालिब के उड़ेंगे पुरज़े
देखने हम भी गए थे पर तमाशा ना हुआ
गालिब
May 16, 2008
ताज महल
तुझ को इस वादी-ऐ-रंगीं से अकीदत ही सही
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे
बज्म-ऐ-शाही में ग़रीबों का गुजर क्या मानी
सब्त जिस राह पे हों सतवत-ऐ-शाही के निशाँ
उस पे उल्फत भरी रूहों का सफर क्या मानी
मेरी महबूब पस-ऐ-परदा-ऐ-तश_हीर -ऐ-वफ़ा
तू ने सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मकाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक मकानों को तो देखा होता
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मोहब्बत कि है
कौन कहता है के सादिक ना थे जज्बे उनके
लेकिन उनके लिए तश_हीर का सामान नहीं
क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफलिस थे
ये इमारात-ओ-मकाबिर ये फसीलें , ये हिसार
मुतला-कुलहुकम शहंशाहों की अजमत के सुतुं
दामन-ऐ-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिस में शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का खून
मेरी महबूब उन्हें भी तो मोहब्बत होगी
जिनकी सानाई ने बक्शी है इन्हें शक्ल-ऐ-जमील
उन के प्यारों के मकाबिर रहे बेनाम -ओ-नमुद
आज तक उन पे जलाई ना किसी ने कंदील
ये चमनजार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक्क़श दर-ओ-दिवार, ये मेहराब ये ताक
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों कि मोहब्बत का उड़ाया है मजाक
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे
साहिर लुध्यानवी
May 15, 2008
कभी कभी
के ज़िंदगी तिरी जुल्फों के नर्म सायों में
गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी जीस्त का मुकद्दर है
तेरी नज़र कि शुआयों में खो भी सकती थी
अजब ना था कि मैं बेगाना-ऐ-आलम रह कर
तिरी जमाल कि रानाइयों में खो रहता
तिरा गुदाज़ बदन तेरी नीमबाज़ आंखें
इन्हीं हसीन फसानों में महव हो रहता
पुकारती मुझे जब तल्खियां ज़माने की
तिरे लबों से हलावत के घूँट पी लेता
हयात चीखती फिरती बरहना सर और मैं
घनेरी ज़ुल्फ के साए में छुप के जी लेता
मगर ये हो ना सका और अब ये आलम है
के तू नहीं, तिरा गम ,तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे
इसे किसी के सहारे कि आरजू भी नहीं
ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रह गुजारों से
मुहीब साए मेरी सम्त बढ़ते आते हैं
हयात-ओ-मौत के पुरहौल खारज़ारों से
ना कोई जादा, ना मंजिल, ना रोशनी का सुराग
भटक रही है खलायों में जिंदगी मेरी
इन्हीं खलायों में रह जाऊंगा कभी खोकर
मैं जानता हूँ मेरी हमनफस मगर यूंही
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
साहिर लुध्यानवी
May 14, 2008
साहिर लुध्यानवी
May 13, 2008
हिम्मत-ऐ- इल्तजा नहीं बाकी
ज़ब्त का हौसला नहीं बाकी
इक तेरी दीद छिन गई मुझसे
वरना दुनिया में क्या नहीं बाकी
अपनी मशक-ऐ-सितम से हाथ ना खींच
मैं नहीं या वफ़ा नहीं बाकी
तेरी चश्म-ऐ-आलमनवाज़ कि खैर
दिल में कोई गिला नहीं बाकी
हो चुका खत्म अहद-ऐ-हिज़र-ओ-विसाल
ज़िंदगी में मज़ा नहीं बाकी
फैज़ अहमद फैज़
May 12, 2008
खुदा वो वक्त ना लाये
सुकून कि नींद तुझे भी हराम हो जाए
तेरी मसर्रत-ऐ-पैहम तमाम हो जाए
तेरी हयात तुझे तल्ख़ जाम हो जाए
ग़मों से आइना -ऐ-दिल गुदाज हो तेरा
हुजूम-ऐ-यास से बेताब होके रह जाए
वाफूर-ऐ-दर्द से सीमाब होके रह जाए
तेरा शबाब फ़क़त खाब होके रह जाए
गुरूर-ऐ-हुसन सरापा नियाज़ हो तेरा
तबील रातों में तू भी करार को तरसे
तेरी निगाह किसी गम गुसार को तरसे
खिजां रसीदा तमन्ना बहार को तरसे
कोई जबीं ना तेरे संग-ऐ-आस्तां पे झुके
कि जींस-ऐ- ईज-ओ-अकीदत से तुझ को शाद करे
फरेब-ऐ-वादा-ऐ-फर्दा पे एतमाद करे
खुदा वो वक्त ना लाये कि तुझको याद आए
वो दिल कि तेरे लिए बेकरार अब भी है
वो आँख जिसको तेरा इंतज़ार अब भी है
फैज़ अहमद फैज़
May 11, 2008
मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शब-ऐ-गम गुजार के
वीरान है मैकदा खुम-ओ-सागर उदास है
तुम क्या गए के रूठ गए दिन बहार के
इक फुरसत-ऐ-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हम ने हौसले परवर-दिगार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिल फरेब हैं गम रोज़गार के
भूले से मुस्करा तो दिए थे वो आज 'फैज़'
फैज अहमद फैज़
May 10, 2008
ग़ालिब
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाये है मुझ से,
जफायें कर के अपनी याद शर्मा जाये है मुझ से।
खुदाया, जज़्बा-ऐ-दिल की मगर तासीर उल्टी है,
के जितना खींचता हूँ और खिंचता जाये है मुझ से।
वो बद-खू और मेरी दास्तान-ऐ-इश्क तूलानी,
इबारत मुख्तसर, क़ासिद भी घबरा जाये है मुझ से ।
उधर वो बद-गुमानी है, इधर ये नातुवानी है,
ना पूछा जाये है उस से, ना बोला जाये है मुझ से ।
संभलने दे मुझे ऐ ना-उम्मीदी क्या क़यामत है,
कि दामन-ऐ-ख़याल-ऐ-यार छूटा जाये है मुझ से ।
तकल्लुफ़ बर-तरफ़ नज्ज़ारगी मैं भी सही लेकिन,
वो देखा जाये कब ये ज़ुल्म देखा जाये है मुझ से ।
हुए हैं पाँव ही पहले नबर्द-ऐ-इश्क में ज़ख्मी,
ना भागा जाये है मुझ से ना ठहरा जाये है मुझ से ।
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफर गालिब,
वो क़ाफिर जो खुदा को भी ना सौंपा जाये है मुझ से ।
ग़ालिब
चाक-ए-गिरेबां की तलाश
दिल के ऐवान में लिए गुल्शुदा शम्मों की कतार
नूर-ए-खुर्शीद से सहमे हुए, उकताए हुए
हुस्न-ए-महबूब के सय्याल तसव्वुर की तरह
अपनी तारीकी को भैंचे हुए, लिपटाए हुए
गायत-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ, सूरत-ए-आगाज़-ओ-म'आल
वही बेसूद तजस्सुस, वही बेकार सवाल
मुज़्महिल सा'अत-ए-इमरोज़ की बे-रंगी से
याद-ए-माज़ी से गमीन, दहशत-ए-फरशा से निदाल
तिशना-अफ्कार जो तस्कीन नहीं पाते हैं
सोखता अश्क जो आंखों में नहीं आते हैं
एक कड़ा दर्द जो गीत में ढलता ही नहीं
दिल के तारीक शिगाफों से निकलता ही नहीं
और एक उलझी हुई मौहूम सी दरमां की तलाश
दश्त-ओ-ज़िन्दां की हवस , चाक-ए-गिरेबां की तलाश
शकील बदायूनी
मैं हूँ दर्द-ए-इश्क से जां-वलब, मुझे ज़िंदगी की दुआ ना दे।
मेरे दाग-ए-दिल से है रौशनी, उसी रौशनी से है ज़िंदगी,
मुझे डर है अये मेरे चारागर, ये चराग तू ही बुझा ना दे।
मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर, तेरा क्या भरोसा है चारागर,
ये तेरी नवाज़िश-ए-मुख्तसर, मेरा दर्द और बढ़ा ना दे।
मेरा अज्म इतना बलंद है के पराए शोलों का डर नहीं,
मुझे खौफ आतिश-ए-गुल से है, ये कहीं चमन को जला ना दे।
वो उठे हैं लेके होम-ओ-सुबू, अरे ओ 'शकील' कहां है तू,
तेरा जाम लेने को बज़्म मे कोई और हाथ बढ़ा ना दे।
शकील बदायूनी
May 2, 2008
गालिब
कहते हैं हम तुझ को मुह दिखलायें क्या।
रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमां
हो रहेगा कुछ ना कुछ घबरायें क्या।
लाग हो तो उस को हम समझें लगाव
जब न हो कुछ भी तो धोखा खाएं क्या।
हो लिए क्यूं नामा-बर के साथ साथ,
या रब अपने ख़त को हम पहुँचायें क्या।
मौज-ऐ-खून सर से गुज़र ही क्यूं ना जाए
आस्तान-ऐ-यार से उठ जाएं क्या।
उम्र भर देखा किए मरने की राह
मर गए पर देखिये दिखलायें क्या।
पूछते हैं वो की गालिब कौन है
कोई बतलाये की हम बतलायें क्या।
ग़ालिब
तबीयत इन दिनों
मेरे हिस्से कि गोया हर खुशी कम होती जाती है ।
वही है शाहिद-ओ-साकी, मगर दिल बुझता जाता है ,
वही है शम्मा लेकिन रोशनी कम होती जाती है।
क़यामत क्या ये ऐ हुस्न-ऐ-दो आलम होती जाती है,
के महफ़िल तो वही है, दिल-कशी कम होती जाती है ।
वही मैखाना-ओ-सहबा, वही सागर वही शीशा ,
मगर आवाज़-ऐ-नोशानोश मद्धम होती जाती है ।
वही है जिंदगी लेकिन "जिगर" ये हाल है अपना ,
के जैसे जिंदगी से जिंदगी कम होती जाती है ।
जि़गर मुरादाबादी