सड़कों के
किनारों पे चलते चलते
युगों हुए
भीड़ से ख़ुद को बचाते
राहों से उतरे
अलग कहीं चलने की
पड़ गई आदत से
धीरे धीरे
ख़त्म हो गया है
हाशिये पे जीने का अहसास
सूरज की तरफ़ पीठ करके
अपने होने की खोज में
चला ही जा रहा हूँ
अपनी ही
परछाईयों के पीछे पीछे
गुरमीत बराड़
( पंजाबी कवि )
4 comments:
अच्छा लिखा है आप ने ..बधाई ..
हाँ रविन्द्र , अच्छी कविता है ,
और प्रस्तुति से लग रहा है , अनुवाद भी सटीक है , अन्यथा इस तरह की कविताओं में अनुवाद बड़ा संवेदनशील
मुद्दा होता है
अच्छी कविता के अच्छे अनुवाद केलिए बधाई
bahut bahut dhanyabaad.
comparatively good translation.My emotions have been justly incorporated in the hindi version also.
Gurmeet Brar
www.gurmeetbrar.blogspot.com
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