वक्त के साथ कदम मिलाता रहा
ख़ुद अपनी ही हस्ती मिटाता रहा
रिश्ते चलते रहे चाल अपनी
हर बाज़ी पे मैं मात खाता रहा
अब गिरा हूँ जो उठ ना सकूंगा कभी
जिस्म कैसे अभी तक उठाता रहा
मेरा रहबर मेरा खुदा तू ही था
कैसे मुझपे तू इल्जाम उठाता रहा
अपनी औकात से बढ़ कर चाहा तुझे
इश्क मुझको मेरी औकात बताता रहा
मैं रहा मुन्तजिर, राह खाली रहे
वक्त आता रहा ,वक्त जाता रहा
मैं चुप था, न मेरी खता थी कोई
तू ही इल्जाम सारे लगाता रहा
लाख चाह के मुझे भूलता ही नही
जाने कैसे तू हर पल भुलाता रहा
हर साँस पूछती थी तेरी खबर
हर धड़का तेरी याद दिलाता रहा
जान दे दी , अमानत उसी की ही थी
जिस्म बाकी रहा , साँस आता रहा
जिस कागज़ पे लिखा था नाम तेरा
कुरान समझा और माथे लगाता रहा
बाद तेरे ये हिसाब लगाता रहा।
डॉ राजीव
डा रविन्द्र सिंह मान
1 comment:
बहुत बेहतरीन गजल लिखी है।पढकर आनंद आ गया।बहुत सुन्दर लिखा है-
जिस कागज़ पे लिखा था नाम तेरा
कुरान समझ के माथे लगाता रहा
क्या पाया है मैंने खो के तुझे,
बाद तेरे ये हिसाब लगाता रहा।
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