आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी.
ये जमीं तब भी निगल लेने को आमादा थी,
पांव जब टूटती शाखों से उतारे हमने,
इन मकानों को खबर है न, मकीनों को खबर
उन दिनों की जो गुफ़ाओं में गुज़ारे हमने,
मकीन: मकानों में रहने वाले
हाथ ढलते गए सांचों में तो थकते कैसे,
नक्श के बाद नए नक्श निखारे हमने,
की ये दीवार बुलंद, और बुलंद, और बुलंद,
बाम-ओ-दर और ज़रा और निखारे हमने,
बाम-ओ-दर: छत और दरवाजे
आंधियाँ तोड़ लियां करतीं थीं शामों की लौयें,
जड़ दिए इस लिए बिजली के सितारे हमने,
बन गया कस्र तो पहरे पे कोई बैठ गया,
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिए,
शोरिश= शोरगुल
तामीर= स्रजनात्मक
अपनी नस-नस में लिए मेहनत-ए-पैहम की थकन,
बंद आँखों में इसी कस्र की तस्वीर लिए,
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक,
रात आँखों में खटकती है स्याह तीर लिए.
मेहनत-ए-पैहम= छुपी हुई मेहनत
कस्र= महल
स्याह= अन्धकार
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी.
कैफी आज़मी
No comments:
Post a Comment