February 17, 2012

जुस्तजू जिस की थी -शहरयार


जुस्तजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने

तुझ को रुसवा न किया खुद भी पशेमां न हुए
इश्क की रस्म को इस तरह निभाया हम ने

कब मिली थी कहाँ बिछडी थी हमें याद नहीं
जिंदगी तुझ को बस खाब में देखा हम ने

अदा और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लंबा सफर तय किया तनहा हम ने 


अख़लाक़ मोहम्मद खान शहरयार

February 16, 2012

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता- शहरयार



कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता

जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
जुबां मिली है मगर हमज़ुबां नहीं मिलता

बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिस में धुआँ नहीं मिलता

तेरे जहाँ में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता

अख़लाक़ मोहम्मद खान शहरयार

जिंदगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है- शहरयार


जिंदगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है

घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक्शे के मुताबिक ये ज़मीं कुछ कम है

तसव्वुर= कल्पना
 

बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है यकीं कुछ कम है

अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ जियादा है कहीं कुछ कम है

आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

अख़लाक़ मोहम्मद खान शहरयार

किस-किस तरह से मुझ को ना रुसवा किया गया



किस-किस तरह से मुझ को ना रुसवा किया गया
गैरों का नाम मेरे लहू से लिखा गया

निकला था मैं सदा-ए-जरस की तलाश में
भूले से ही सुकूत के सेहरा में आ गया

जरस = घंटी
सुकूत = शान्ति, चुप्पी

क्यों आज उस का ज़िक्र मुझे खुश ना कर सका
क्यों आज उस का नाम मेरा दिल दुखा गया

इस हादसे को सुन के करेगा यकीन कोई
सूरज को ए़क झोंका हवा का बुझा गया

  
अख़लाक़ मोहम्मद खान शहरयार

February 8, 2012

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है- कैफी आज़मी


आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी.

ये जमीं तब भी निगल लेने को आमादा थी,
पांव जब टूटती शाखों से उतारे हमने,
इन मकानों को खबर है न, मकीनों को खबर
उन दिनों की जो गुफ़ाओं में गुज़ारे हमने,

मकीन: मकानों में रहने वाले

हाथ ढलते गए सांचों में तो थकते कैसे,
नक्श के बाद नए नक्श निखारे हमने,
की ये दीवार बुलंद, और बुलंद, और बुलंद,
बाम-ओ-दर और ज़रा और निखारे हमने,

बाम-ओ-दर: छत और दरवाजे

आंधियाँ तोड़ लियां करतीं थीं शामों की लौयें,
जड़ दिए इस लिए बिजली के सितारे हमने,
बन गया कस्र तो पहरे पे कोई बैठ गया,
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिए,

शोरिश= शोरगुल
तामीर= स्रजनात्मक

अपनी नस-नस में लिए मेहनत-ए-पैहम की थकन,
बंद आँखों में इसी कस्र की तस्वीर लिए,
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक,
रात आँखों में खटकती है स्याह तीर लिए.

मेहनत-ए-पैहम= छुपी हुई मेहनत
कस्र= महल
स्याह= अन्धकार

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी.

कैफी आज़मी