April 23, 2008

अपने खाबों में

अपने ख्वाबों में तुझे जिस ने भी देखा होगा ,
आँख खुलते ही तुझे ढूंढने निकला होगा।

जिंदगी सिर्फ़ तेरे नाम से मनसूब रहे,
जाने कितने ही दिमागों ने ये सोचा होगा।

दोस्त हम उस को ही पैगाम ऐ करम समझेंगे,
तेरी फुरकत का जो जलता हुआ लम्हा होगा।

दामन -ऐ - जीस्त में कुछ भी नही है बाक़ी,
मौत आई तो यकीनन उसको धोका होगा।

रौशनी जी से उतर आई लहू में मेरे,
ए मसीहा वो मेरा ज़ख्म-ऐ- तमन्ना होगा।

दाना

April 22, 2008

मंजिल-ऐ-इश्क में

ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया,
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया।


यूं तो हर शाम उम्मीदों में गुज़र जाती थी,
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया।


कभी तक़दीर का मातम, कभी दुनिया का गिला,
मंजिल-ऐ-इश्क में हर गाम पे रोना आया।


जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का 'शकील',
मुझ को अपने दिल-ऐ-नाकाम पे रोना आया।

शकील बदायूनी

दिल तोड़ दिया

कुछ तो दुनिया की इनायत ने दिल तोड़ दिया ,
और कुछ तल्खी-ऐ-हालात ने दिल तोड़ दिया।

हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब,
आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया।

दिल तो रोता रहे, और आँख से आंसू न बहे
इश्क कि ऎसी रवायत ने दिल तोड़ दिया।

वो मेरे हैं मुझे मिल जायेंगे आ जायेंगे,
ऐसे बेकार के खयालात ने दिल तोड़ दिया।

आप को प्यार है मुझ से के नहीं है मुझ से ,
जाने क्यों ऐसे सवालात ने दिल तोड़ दिया ।

April 16, 2008

मीना कुमारी

चाँद तन्हा है आस्मान तन्हा,
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा।

बुझ गयी आस छुप गया तारा ,
थर-थराता रहा धुआं तन्हा।

हमसफ़र कोई गर मिले भी कोई ,
दोनों चलते रहे तन्हा तन्हा।

जिन्दगी क्या इसी को कहते हैं ,
जिस्म तनहा है और जान तन्हा।


जलती बुझती सी रौशनी के परे,
सिमटा सिमटा सा एक मकान तन्हा।


राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगे ये जहाँ तन्हा।


मीना कुमारी

April 11, 2008

कैसे सुकून पाऊँ

कैसे सुकून पाऊँ तुझे देखने के बाद,
अब क्या ग़ज़ल सुनाऊं तुझे देखने के बाद।

आवाज़ दे रही है मेरी जिंदगी मुझे,
जाऊं मैं या न जाऊं तुझे देखने के बाद।

काबे का एहतराम भी मेरी नज़र में है,
सर किस तरफ़ झुकाऊँ तुझे देखने के बाद ।

तेरी निगाह-ऐ-मस्त ने मखमूर कर दिया,
क्या मैकदे को जाऊं तुझे देखने के बाद ।

नज़रों में ताब-ऐ-दीद ही बाक़ी नही रही,
किस से नज़र मिलाऊँ तुझे देखने के बाद।


सईद शाहीदी

April 7, 2008

खुशकिस्मत लोग

वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते-जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क किया कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आख़िर तंग आ कर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया

फैज अहमद फैज