अब वही हर्फ़-ए-जुनून सब की जुबां ठहरी है
जो भी चल निकली है वो बात कहाँ ठहरी है
आज तक शैख़ के इकराम में जो शय थी हराम
अब वही दुश्मन-ए-दीन राहत-ए-जान ठहरी है
है खबर गर्म की फिरता है गुरेजां नासेह
गुफ्तगू आज सर-ए-कू-ए-बुतां ठहरी है
है वही आरिज-ए-लैला वही शीरियन का दहन
निगाह-ए-शौक घड़ी भर को यहाँ ठहरी है
वस्ल की शब थी तो किस दर्जा सुबक गुजरी थी
हिज्र की शब है तो क्या सख्त-गराँ ठहरी है
बिखरी एक बार तो हाथ आई कहाँ मौज-ए-शमीम
दिल से निकली है तो कब लब पे फुगां ठहरी है
दस्त-ए-सय्याद भी आज़िज है कफ-ए-गुलचीं भी
बू-ए-गुल ठहरी ना बुल-बुल की जबां ठहरी है
आते आते यूँ ही दम भर को रुकी होगी बहार
जाते जाते यूँ ही पल भर को खिजां ठहरी है
हम ने जो तर्ज़-ए-फुगां की है कफस में इजाद
'फैज़' गुलशन में वो तर्ज़-ए-बयान ठहरी है
फैज़ अहमद फैज़
1 comment:
उम्दा कलाम .
हमारे ब्लौग पर आप आये , शुक्रिया .
http://blogkikhabren.blogspot.com/
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