June 1, 2011

दो इश्क़

ताज़ा हैं अभी याद में, ऐ साकी-ए-गुलफाम
वो अक्स-ए-रुख-ए-यार से लहके हुए अय्याम
वो फूल सी खिलती हुई दीदार की सा'अत
वो दिल सा धड़कता हुआ उम्मीद का हंगाम 

उम्मीद कि लो जागा ग़म-ए-दिल का नसीबा
लो शौक़ की तरसी हुई शब् हो गई आखिर
लो डूब गए दर्द के बे-ख्वाब सितारे
अब चमकेगा बे-सब्र निगाहों का मुक़द्दर
इस बाम से निकलेगा तेरे हुस्न का खुर्शीद
उस कुंज से फूटेगी किरन रंग-ए-हिना की
इस दर से बहेगा तेरी रफ़्तार का सीमाब
उस राह पे फूलेगी शफ़क़ तेरी क़बा की  

फिर देखें हैं वो हिज्र के तपते हुए दिन भी
जब फ़िक्र-ए-दिल-ओ-जान में फुगाँ भूल गई है
हर शब् वो सिया बोझ कि दिल बैठ गया है
हर सुब्ह की लौ तीर सी सीने में लगी है
तन्हाई में क्या क्या न तुझे याद किया है
क्या क्या न दिल-ए-ज़ार ने ढूंडी हैं पनाहें
आँखों से लगाया है कभी दस्त-ए-सबा को
डाली हैं कभी गरदन-ए-महताब में बाहें 

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 चाहा हैं इसी रंग में लैला-ए-वतन को
तड़पा है इसी तौर से दिल उसकी लगन में
ढूंडी है यूं ही शौक़ ने आसा'इश-ए-मंज़िल
रुखसार के ख़म में, कभी काकुल की शिकन में 

उस जान-ए-जहां को भी यूंही क़ल्ब-ओ-नज़र ने
हंस हंस के सदा दी, कभी रो रो के पुकारा
पूरे किये सब हर्फ़-ए-तमन्ना के तकाज़े
हर दर्द को उज्याला, हर एक ग़म को संवारा

वापस नहीं फेरा कोई फरमान जुनूं का
तनहा नहीं लौटी कभी आवाज़ जरस की
खैरियत-ए-जान, राहत-ए-तन, सेहत-ए-दामन
सब भूल गयीं मसलहतें अहल-ए-हवस की  

इस राह में जो सब पे गुज़रती है वो गुज़री
तनहा पस-ए-ज़िन्दां, कभी रुसवा सर-ए-बाज़ार
गरजे हैं बहुत शेख सर-ए-गोशा-ए-मिन्बर
कड़के हैं बहुत अहल-ए-हुक्म बर सर-ए-दरबार

छोड़ा नहीं ग़ैरों ने कोई नावक-ए-दुशनाम
छूटी नहीं अपनों से कोई तर्ज़-ए-मलामत
इस इश्क़ न उस इश्क़ पे नादिम है मगर दिल
हर दाग़ है इस दिल में ब-जुज़ दाग़-ए-नदामत
 
    फैज़ 

From " Dasht -e- Sabaa" 

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