November 14, 2008

सुबह-ए-आज़ादी

ये दाग दाग उजाला, ये शब-गजीदा सहर,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों कि आखरी मंजिल
कहीं तो होगा शब-ऐ-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जा के रुकेगा सफीना-ऐ-गम-ऐ-दिल
जवां लहू की पुर-असरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ऐ-हुस्न की बे-सब्र खाब-गाहों से
पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख-ऐ-सहर की लगन
बहुत करीं था हसीना-ऐ-नूर का का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना , दबी दबी थी थकन


सुना है हो भी चुका है फिराक-ऐ-जुल्मत-ऐ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ऐ-मंजिल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहल-ऐ-दर्द का दस्तूर
निशात-ऐ-वस्ल हलाल-ओ-अजाब-ऐ-हिज़र-ऐ-हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ऐ-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगार-ऐ-सबा , किधर को गई
अभी चिराग-ऐ-सर-ऐ-राह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गरानी-ऐ-शब में कमी नहीं आई
नजात-ऐ-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो की वो मंजिल अभी नहीं आई

फैज़ अहमद फैज़

November 12, 2008

मेरी तेरी निगाह में

मेरी तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं,
जो मेरे तेरे तन बदन में लाख दिल फिगार हैं
जो मेरी तेरी उँगलियों की बेहिसी से सब कलम नजार हैं
जो मेरे तेरे शहर की हर इक गली में
मेरे तेरे नक्श-ऐ-पा के बे-निशाँ मजार हैं
जो मेरी तेरी रात के सितारे ज़ख्म ज़ख्म हैं
जो मेरी तेरी सुबह के गुलाब चाक चाक हैं
ये ज़ख्म सारे बे-दवा ये चाक सारे बे-रफू
किसी पे राख चाँद की किसी पे ओस का लहू
ये हैं भी या नहीं बता
ये है कि महज जाल है
मेरे तुम्हारे अनकबूत-ऐ-वहम का बुना हुआ
जो है तो इसका क्या करें
नहीं है तो भी क्या करें
बता, बता, बता, बता

फैज़ अहमद फैज़