November 28, 2010

इस तरह खुश हूं

इस तरह खुश हूं किसी के वादा-ऐ-फर्दा पे मैं,
दर हकीक़त जैसे मुझ को ऐतबार आ ही गया ।

काम आख़िर जज्बा-ऐ-बेइख्तियार आ ही गया,
दिल कुछ इस सूरत से तड़पा उन को प्यार आ ही गया।

हाय ये हुस्न-ऐ-तसव्वुर का फरेब-ऐ-रंग-ओ-बू ,
मैं ने समझा जैसे वो जान-ऐ-बहार आ ही गया ।

जिगर मुरादाबादी

November 15, 2010

जुनून-ए-शौक अब भी कम नहीं है


जुनून-ए-शौक अब भी कम नहीं है
मगर वो आज भी बरहम नहीं है

बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना
तेरी जुल्फों के पेच-ओ-ख़म नहीं है

बहुत कुछ और भी है जहां में
ये दुनिया महज गम ही गम नहीं है

मेरी बरबादियों के हम-नशीनों
तुम्हें क्या खुद मुझे भी गम नहीं है

अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं
अभी तो आँख भी पुरनम नहीं है

'मजाज़' एक बादाकश तो है यक़ीनन
जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है


मजाज़ लखनवी

बर्बाद तमन्ना पे अताब और ज़्यादा


बर्बाद तमन्ना पे अताब और ज़्यादा
हाँ मेरी मोहब्बत का जबाव और ज्यादा


रोये ना अभी अहल-ए-नज़र हाल पे मेरे
होना है अभी मुझ को खराब और ज्यादा

आवारा-वा-मजनूं ही पे मौकूफ नहीं कुछ
मिलने हैं अभी मुझ को खिताब और ज्यादा

उठेंगे अभी और भी तूफ़ान मेरे दिल से
देखूंगा अभी इश्क के ख़्वाब और ज्यादा

टपकेगा लहू और मेरे दीदा-ए-तर से
धड़केगा दिल-ए-खानाखराब और ज्यादा

ए मुतरिब-ए-बेबाक कोई और भी नगमा
ए साकी -ए-फयाज शराब और ज्यादा



होगी मेरी बातों से उन्हें और भी हैरत
आयेगा उन्हें मुझसे हिजाब और ज़्यादा





मजाज़ लखनवी

अपने हर हर लफ्ज़ का खुद आईना हो जाऊंगा


अपने हर हर लफ्ज़ का खुद आईना हो जाऊँगा ,
उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा

तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं,
मैं गिरा तो मसला बन कर खड़ा हो जाऊँगा

मुझ को चलने दो अकेले है अभी मेरा सफ़र,
रास्ता रोका
गया तो काफिला हो जाऊंगा

सारी दुनिया की नज़र में है मेरा अहद-ए-वफ़ा,
एक तेरे कहने से क्या मैं बेवफा हो जाऊंगा


वसीम बरेलवी



हमारे दरम्यां ऐसा कोई रिश्ता नहीं था - परवीन शाकिर

हमारे दरम्यां ऐसा कोई रिश्ता नहीं था
तेरे शानों पे कोई छत नहीं थी
मेरे जिम्मे कोई आँगन नहीं था
कोई वादा तेरी ज़ंजीर-ए-पा बनने नहीं पाया
किसी इकरार ने मेरी कलाई को नहीं थामा
हवा-ए-दश्त की मानिंद
तू आज़ाद था
रास्ते तेरी मर्ज़ी के ताबे थे
मुझे भी अपनी तन्हाई पे
देखा जाए तो
पूरा तस्सरूफ़ था
मगर जब आज तू ने
रास्ता बदला
तो कुछ ऐसा लगा मुझ को
के जैसे तू ने मुझ से बेवफाई की



परवीन शाकिर

चेहरा मेरा था निगाहें उसकी


चेहरा मेरा था निगाहें उसकी ,
खामुशी में भी वो बातें उसकी।

मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गयीं ,
शेर कहती हुई आँखे उसकी।

शोख लम्हों का पता देने लगीं ,
तेज़ होती हुई सांसें उसकी।

ऐसे मौसम भी गुज़ारे हमने,
सुबहें जब अपनी थीं शामें उसकी।

ध्यान में उसके ये आलम था कभी,
आँख महताब की यादें उसकी।

फैसला मौज-ए-हवा ने लिखा,
आंधियां मेरी बहारें उसकी।

नींद इस सोच से टूटती अक्सर,
किस तरह कटती हैं रातें उसकी।

दूर रह कर भी सदा रहती हैं,
मुझको थामे हुए बाहें उसकी।



परवीन शा़किर

मैं चाहता भी यही था वो बेवफा निकले


मैं चाहता भी यही था वो बेवफा निकले,
उसे समझने का कोई तो सिलसिला निकले

किताब ए माजी के औराक़ उलट के देख ज़रा,
ना जाने कोनसा सफा मुङा हुआ निकले

जो दिखने में बहुत ही करीब लगता है,
उसी के बारे में सोचो तो फासला निकले


वसीम बरेलवी