March 17, 2008

फैज़ अहमद फैज़

सच है हम ही को आप के शिकवे बजा ना थे,
बेशक सितम जनाब के सब दोस्ताना थे।

हाँ जो जफ़ा भी आप ने की,कायदे से की,
हाँ हम ही काराबंद-ए-उसूल-ए-वफ़ा ना थे।

आये तो यूँ की जैसे हमेशा थे मेहरबान,
भूले तो यूँ की गोया कभी आशना ना थे।

फैज़

हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है,
दुशनाम तो नहीं है ये इकराम ही तो है।

दिल मुद्दई के हर्फ़-ए-मलामत से शाद है,
ए जान-ए-जां, ये हर्फ़ तेरा नाम ही तो है।

दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है,
लम्बी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है।

फैज़


गुलों मे रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले।

कफ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले।

कभी तो सुबह तेरे कुन्ज-ए-लब से हो आगाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले।

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल गरीब सही
तुम्हारे नाम पे आएंगे गमगुसार चले।

जो हम पे गुजरी सो गुजरी मगर शब-ए-हिजरां
हमारे अश्क तेरी आकबत संवार चले।

हुज़ूर-ए-यार हुई दफ्तर-ए-जुनून की तलब
गिरह मे लेके गरेबां के तार-तार चले।

मकाम कोई फैज़ राह मे जचा ही नही
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले।

फैज़


आये कुछ अब्र कुछ शराब आये
उसके बाद आये जो अज़ाब आये।


उम्र के हर वर्क पे दिल को नज़र
तेरी मेहर-ओ-वफ़ा के बाब आये।


कर रहा था गम-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बेहिसाब आये।


इस तरह अपनी खामोशी गूंजी
गोया हर सिम्त से जवाब आये।


'फैज़'


तुम न आये थे तो हर चीज़ वही थी के जो है
आसमाँ हद-ए-नज़र, राह-गुज़र राह-गुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
और अब शीशा-ए-मय, राह-गुज़र, रंग-ए-फ़लक
रंग है दिल का मेरे "खून-ए-जिगर होने तक"
चम्पई रंग कभी, राहत-ए-दीदार का रंग
सुरमई रंग के है सा'अत-ए-बेज़ार का रंग
ज़र्द पत्तों का, खस-ओ-ख़ार का रंग
सुर्ख फूलों का, दहकते हुए गुलज़ार का रंग
ज़हर का रंग, लहू-रंग, शब-ए-तार का रंग


आसमाँ, राह-गुज़र, शीशा-ए-मय
कोई भीगा हुआ दामन, कोई दुखती हुई रग
कोई हर लहज़ा बदलता हुआ आइना है
अब जो आये हो तो ठहरो के कोई रंग, कोई रुत, कोई शय
एक जगह पर ठहरे

फिर से एक बार हर एक चीज़ वही हो जो है
आसमाँ हद-ए-नज़र, राह-गुज़र राह-गुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय


'फैज़'


आ के वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिस ने दिल को परी-खाना बना रखा था.
जिसकी उल्फत में भुला रखी थी दुनिया हम ने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था.


आशनां हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है।

कारवाँ गुज़रे हैं जिन से उसी रानाई के
जिस की इन आंखों ने बे-सूद इबादत की है।


तुझ से खेली हैं वो महबूब हवाएं जिन में
उसके मलबूस की अफ्सुर्दा महक बाकी है.
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से महताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाकी है.


तू ने देखी है वो पेशानी, वो रुखसार, वो होंट
ज़िंदगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हम ने.
तुझ पे उठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें
तुझ को मालूम है क्यों उम्र गंवा दी हम ने.


हम पे मुस्कराते हैं एहसान गम-ए-उल्फत के
इतने एहसान की गिनवाऊं तो गिनवा न सकूं.
हम ने इस इश्क में क्या खोया है, क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ.


आजिज़ी सीखी, गरीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिर्मान के, दुख-दर्द के मानी सीखे
ज़ेर-दस्तों के मसाइब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रुख-ए-ज़र्द के मानी सीखे


जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बे-कस जिनके
अश्क आंखों में बिलखते हुए सो जाते हैं
न-तावानों के निवालों पे झपटते हैं उकाब
बाज़ू तोले हुए, मंडराते हुए आते हैं


जब कभी बिकता है बाज़ार में मजदूर का गोश्त
शाहराहों पे गरीबों का लहू बहता है
आग सी सीने में रह रह के उबलती है, ना पूछ!
अपने दिल पर मुझे काबू ही नहीं रहता है !!


'फैज़'


कभी कभी याद में उभरते हैं नक्श-ऐ-माज़ी मिटे मिटे से
वो आज़माइश दिल-ओ-नज़र की, वो कुर्बतें सी, वो फासले से।


कभी कभी आरज़ू के सेहरा में आ के रुकते हैं क़ाफिले से
वो सारी बातें लगाओ की सी, वो सारे उनवान विसाल के से।


निगाह-ओ-दिल को करार कैसा, निशात-ओ-ग़म में कमी कहाँ की?
वो जब मिले हैं तो उन से हर बार की है उल्फत नए सिरे से ।


तुम ही कहो रिंद-ओ-मुह्तसिब में है आज शब कौन फर्क ऐसा
ये आ के बैठे हैं मयकदे में, वो उठ के आए हैं मयकदे से ।


'फैज़'

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